स्मृति शेष : स्व. ओमप्रकाश शर्मा : काव्यात्मक दो विशेष कविता – गोविंद पाल और पल्लव चटर्जी
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तुम्हें कैसे भुलूं दोस्त!
– गोविंद पाल
कैसे भुलूं तुम्हें दोस्त!
मेरे रग रग में जो बसे हो,
जीवन के हर चुनौती को
हर कसौटी में कसे हो।
हिन्दी के तुम प्रणेता थे
कानून के थे तुम ज्ञाता,
जो करते थे वादा तुम
हर हाल में उसे निभाता।
मुक्तकंठ के तुम भी जनक थे
साहित्य के थे तुम पुरोधा,
मुक्तकंठ के हर मुसीबतों में
दूर कर देते थे हर वाधा।
गरीबों को हक दिलाने निःशुल्क
कानूनी लड़ाई तुम लड़ते थे,
संकट किसी पर आ जाय तो
उसे दूर करने को आगे बढ़ते थे।
व्यवहार कुशलता के धनी थे
हर किसी के तुम चहेते थे,
डंके की चोट पर सच के लिए
सबको आगे बढ़ने को कहते थे।
नेतृत्व की क्षमता काफ़ी थीं तुममे
बार एसोसिएशन के कभी सचिव थे,
संस्कार संस्कृति और अनुशासन प्रेमी
दायित्व निर्वाहन में हमेशा सजीव थे।
मित्र धर्म निभाना कोई तुमसे सीखे
हर सुख – दुःख में काम आते थे,
किसीके दुःख तकलीफों में
सबसे पहले पंहुच जाते थे।
तुमसे सहायता मांगने जो भी आया
सकारात्मक ऊर्जा से भर जाते थे,
उनका जीवन भी प्रकाशित हो जाता
जो भी तुम्हारे सानिध्य में आते थे।
नाम से सिर्फ ओमप्रकाश नहीं
वातावरण को प्रकाश से भर देते थे,
ऐसे सख्शियत बिरले मिलते हैं
चुटकयों में समस्या हल कर देते थे ।
पर दोस्त बोलो तुम कहाँ चले गये
इतने जल्दी कैसे तुम उस पार गये,
सबको हिम्मत देने वाले मेरे मित्र!
बोलो कैसे तुम जीवन से हार गये।
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• 75871 68903
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अदृश्य धागे
– पल्लव चटर्जी
अदृश्य धागे में बधा
कवि
जीवन के मंच पर
कठपुतली की तरह
करतब दिखाते-दिखाते
क्लाँत होकर गिर पडा़
और अशक्त हो गया चिकित्सालय के धवल बिस्तर पर
मशीनों के श्रृंखल में
बँधी देह-चंचलता शून्य है
किन्तु भीतर बैठा कवि
अपनी ही लिखी रचनाओं में
अब भी चंचल है,,, कभी वो जुम्मन काका की नाव पर
बैठकर अपने गाँव का घर देख आता है
तो कभी चला जाता है उस मंदिर परिसर में
जहां माँ दुर्गा के विसर्जन का
करूण दृश्य उसे स्वयं के
अवसान के सत्य से परिचित कराता है
सहम जाता है बीच-बीच में
कुछ दानवी आकृतियों को देखकर
जिनके हाथों की डोर-
उसकी आत्मा से बँधी प्रतीत होती है
कानों से निरंतर टकराती ध्वनियों से
“राम नाम सत्य है” की प्रतिध्वनि
कवि को उसके शेष का
बोध कराती है और वो है कि
अपनी पथराई आँखों में अपनी अतृप्त इच्छा का
प्रतिबिंब रखकर
अदृश्य धागों से बँथा,खिंचता
चल देता है चुपचाप।
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