ग़ज़ल आसपास : नूरुस्सबाह खान ‘सबा’
👉 नूरुस्सबाह खान ‘सबा’
[ •छत्तीसगढ़ दुर्ग की नूरुस्सबाह खान ‘सबा’ की पहली रचना ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ में प्रकाशित की जा रही है. • ‘सबा’ इनका कलमी नाम है. •’सबा’ ने शायरी का आगाज़ 2008 से किया है. •’सबा’ की तालीम एमए अंग्रेजी साहित्य में है और मुकाम पैदाइश जबलपुर में 2 जनवरी को हुई, अब दुर्ग छत्तीसगढ़ में निवासरत हैं. • इनामात व एज़ाज़ात- छत्तीसगढ़ उर्दू तंज़ीम, सद्भावना साहित्य समिति, नवरंग काव्य मंच द्वारा सम्मान प्राप्त. आकाशवाणी से रचनाएँ प्रसारित. •’सबा’ की रचनाओं में हिंदी-उर्दू ग़ज़लों की प्रगतिशील परंपरा से समकालीन ग़ज़ल को जोड़ती हुई सार्थक रचनाशीलता की दृष्टि झलकती है, मुझे लगता है ‘सबा’ भविष्य की संभावनाशील रचनाकर्मी होने में सफल होंगी.- संपादक ]
▪️ [1] ग़ज़ल
हैं दर्द सीनों में भरे ग़मों की इक क़तार है
हर एक आँख शबनमी हर एक दिल फ़िगार है
धुँआ धुँआ सी है फ़िज़ा ग़ुबार ही ग़ुबार है
मैं सोचती हूँ शहर है या दश्त कोहसार है
बहार आने की उमीद दूर तक कहीं नहीं
है शोर हर तरफ़ मचा बहार है बहार है
ख़ुदा किसे सुनाऊँ मैं ग़मो अलम की दास्ताँ
कोई यहां न हम ज़बां कोई न ग़मगुसार है
मुसाफ़तें मिली मुझे हयाते मुस्तआर में
है रास्ता छुपा हुआ न जाने क्या दयार है
रंज ओ ग़मे हयात ने मरीज़ सबको कर दिया
जो भी जहां में है “सबा” लज़्ज़ते बे अयार है
▪️ [2] ग़ज़ल
महफ़ूज़ हूँ दुनिया के हरेक खौफ़ व ख़तर से
वाबस्ता हुई जब से मैं अल्लाह के दर से
वो और हैं जिनको है किसी शै की ज़रूरत
क्या शै नही मुझको मिली मौला तेरे दर से
इक बाढ़ सी आई है गुरूपों की अदब में
अल्लाह! बचाना मुझे इस फ़ितना व शर से
ये मिसरा है किसका मुझे भाता नही हरगिज़
“आसेब मोहब्बत का निकलता नही सर से”
सब शाह व ग़दा फैज़ उठाते हैं शब व रोज़
आता नही ख़ाली कोई सरकार के दर से
बेटी! मेरे सर को कभी झुकने नही देना
सरकाना नही अपना दुपट्टा कभी सर से
जिस राह पे तुम हमको कभी छोड़ गए थे
हम आज बहुत दूर हैं उस राह गुज़र से
माहौल ज़माने का अलमनाक है लोगो!
महफ़ूज़ नही कोई बशर आज के शर से
दामन है बुज़ुर्गों का मेरे हाथ में लोगो!
बहकी हूँ न बहकुंगी कभी अपनी डगर से
रहता है मेरे पेश नज़र वो हंसी पैकर
दामन मेरा लबरेज़ है हर लाल व गुहर से
वाबस्ता किसी दर से हुई जब से “सबा” मैं
अफ़कार दरख्शां मेरे अशआर में बरसे.
▪️ [3] ग़ज़ल
मुनइम किया किसी को गदागर बना दिया
अल्लाह तूने कैसा मुक़द्दर बना दिया
भड़काता है जो आतिशे नफ़रत समाज में
हैरत तो ये है उसको ही रहबर बना दिया
अब तो किसी भी बात का होता असर नहीं
इक संगदिल ने मुझको भी पत्थर बना दिया
अल्लाह रे ये शौक़ ए फरावां की बरकतें
मजनूं किया किसी को सुख़नवर बना दिया
शाह व गदा में कोई नही फ़र्क़ व इम्तियाज़
सबको निगाहे हक़ ने बराबर बना दिया
जो बेवफ़ा थे उनको तो तमगे दिए गए
जिसने वफ़ा की उसको गदागर बना दिया
हर वक़्त गरदिशों से उलझती रही “सबा”
कैसा ख़ुदा ने उसका मुक़द्दर बना दिया.
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