कवि और कविता : डॉ. सतीश ‘बब्बा’
• कविता : शव वाहन
• डॉ. सतीश चंद्र मिश्र ‘बब्बा’
[ चित्रकूट, उत्तरप्रदेश ]
जिसको तूने,
समझा खिलौना,
उसने तुझे पहले ही,
बनाया है खिलौना!
हंसी मजाक,
तुकबंदियां,
कितना भी करें,
केंद्रबिंदु उसे बनाकर!
लेकिन यह सच है,
जीवन का हर फलसफा,
उसके वगैर,
अधूरा है!
मां बनकर वह,
तुझे बनाती है,
संवारती है तुझे,
मिट्टी के लोंदे से,
आकार देती है,
ठोंक ठोंककर!
पकाती है तुझे,
प्यार की भट्टी में,
रंग बिरंगे रूप में,
तुझे सजाती है!
फिर आती है,
बनकर अर्धांगिनी,
संवारती है,
तेरा घर गृहस्थी,
और जीवन,
जीवन का हर लम्हा!
जब तक वह नहीं होती,
जीवन अधूरा होता है,
लगता है कुछ भी नहीं है,
सबकुछ होकर भी कुछ नहीं है!
पैसों से खरीदा जा सकता है,
हवस का सेक्सी सामान,
खरीद सकता है,
जीभ का पेट भरू बेस्वाद सामान!
पर मिल नहीं सकती,
वह मां, वह स्त्री,
वह औरत महान,
जो भर सकती है खाली स्थान!
वह अधिकार कापीराइट,
उसी के पास होता है,
जो अधिकार से पूछती है,
कहां हो, बड़ी देर हो गई!
जो जान लेती है,
कि भूख लगी है,
और इससे इस समय,
भूख शांत हो जाएगी!
इसीलिए कहता हूं,
जीवन के हर लम्हे में,
उस औरत को साथ ले ले,
हो सकता है कल न मिले!
औरत ही भर सकती है,
तेरे निर्जीव तन में जीवन,
वरना लाश ढोने के लिए,
हजारों पड़े हैं शव वाहन!!
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• 94510 48508
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