कविता
●कहाँ है गंतव्य
●संतोष झांझी
बचपन के पांव से
दौड़ी और दौड़ती ही रही
बड़ी होने तक
शायद किसी देखे अनदेखे
गंतव्य के लिये
वह मेरी दौड़ थी
मन से मन तक
किसी गंतव्य के लिये
वह अनजाना अनछुआ
सा था शायद
पर क्या था वह
किसी ने कभी बताया ही नहीं
वह मृगमरीचिका सा रहा
किसी सपनों के राजकुमार सा
निराकार सा कोई आकार
गढती रही पर असंन्तुष्ट सी
कभी कुछ पल
थमी ठिठकी भी
पर अनजान अपरिचित सा
लगता रहा सब
जीवन के सुनहरे वर्ष
गुजारकर समझ लिया
अब जान लिया
गंतव्य तो कोई होता ही नहीं
सिर्फ और सिर्फ होती है
मृगमरीचिका
आजीवन तलाशते रहते है
हम जिसे पागलों की तरह
वह तो है ही नही
वह गंतव्य तो वहीँ है
जहाँ हम अभी हैं
【 ●देश की सु-प्रसिद्ध कोकिल कंठी संतोष झांझी किसी परिचय की मोहताज नहीं ●देश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं,आकाशवाणी, दूरदर्शन में संतोष झांझी की कविताएं,कहानी प्रकाशित/प्रसारित होते रहती है ●छत्तीसगढ़ आसपास,प्रिंट एवं वेब पोर्टल में भी नियमित कविता/कहानी प्रकाशित हो रही है ●आज़ उनकी कविता’कहाँ है गंतव्य’ पाठकों के लिए प्रस्तुत है, कैसी लगी,अवश्य बतायें -संपादक
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