लघुकथा
●बांटने का सुख
●तेजराम शाक्य
बांटने का सुख
आज की बात एक घटना से प्रारंभ करते है। बात 60 के दशक की होगी जब उस समय टॉकीज में फिल्म मदर इंडिया लगी हुई थी। मैं अपने पिताजी के साथ इस फिल्म को देखने गया हुआ था टॉकीज में सभी जगह आदमी ही आदमी नजर आ रहे थे ।बहुत भीड़ थी पिताजी लाइन में लग गए और मैं लाइन के बाहर बने कटघरे की बल्लियों के बीच से उन्हें देख रहा था सबके चेहरों पर फिल्म देखने की खुशी नजर आ रही थी। एक एक कर सब टिकट लेकर आगे बढ़ते जा रहे थे तभी पिताजी के आगे वाले सज्जन का नंबर आया तो टिकिट बाबू ने पूछा कितने टिकट चाहिए उसने बोला 6 टिकट,जैसे ही उसने टिकट बाबू को पैसे दिए तो उसने बोला कि यह तो ₹5 कम है उसने कहा कैसे? मैंने तो पैसे पूरे दिए हैं। टिकट बाबू ने एक एक कर पूरे पैसे गिनवा दिए। असल में उसके हिसाब लगाने में गड़बड़ हो गई थी और वह उतने ही पैसे लाया था जितने टिकट बाबू को दिए थे मगर अब क्या ?उसके तो होश उड़ गए मुंह पर पसीने की झलक साफ नजर आ रही थी अब उसके पास और पैसे तो थे नहीं, मुंह पर हवाइयां उड़ रही थी क्या करें कुछ समझ नहीं आ रहा था ।तभी मेरे पिताजी ने अपना 5:00 का नोट नीचे गिरा दिया और कहा अरे भाई साहब 5:00 का नोट आपका नीचे गिर गया है मगर वह सज्जन समझ गए की यह नोट तो मेरा नहीं क्योंकि वह तो घर से उतने ही पैसे लेकर चले थे जितने बाबू को दिए थे मगर उन सज्जन ने वह 5:00 का नोट उठाकर बाबू को दिया पिताजी को धन्यवाद कहा और टिकट लेकर हाल में चले गए । मेरे पिताजी बगैर टिकट लिए ही वापस आ गए और मुझ से बोले चलो घर चलते हैं। मेरी कुछ समझ नहीं आ रहा था यह सब क्या हुआ ?पिताजी से मैंने पूछा आपने ऐसा क्यों किया तब वे बोले की देने का सुख या बांटने का सुख फिल्म देखने के सुख से कहीं
अधिक होता है।
[ तेज़राम शाक्य,कोरी बुनकर समाज़ कल्याण समिति के अध्य्क्ष एवं बुंदेलखंड मित्र मंडल के संस्थापक हैं, साथ में अच्छे विचारक एवं लेखक भी हैं]