कविता
●लावारिस देह
●संतोष झांझी
रात गये रोटी के लिये गुहार लगाती
गठरी कथरी कटोरा लिये सर खुजाती
बदन खुजाती ,घूमती रहती है
एक जीर्णकाया
उसे पगली नाम दे रखा है लोगो ने
किसी को सामने पाते ही
अपनें गंदे दाँत निपोरकर
झट हंसती है पगली
उसका अनधिकार हंसना
लोगों को नहीं भाता
क्यों हंसती है ?
क्या है उसके पास हंसने को
अचानक कहीं से लावारिस
अवतरित हुई कहां से
कोई नहीं जानता कौन है पगली
रात कभी किसी
बंद दुकान के चबूतरे पर
कभी किसी खड़े ट्रक या किसी टैक्टर के नीचे
वह जम जाती है
अपनी गठरी कथरी सहित
एकदिन हैरानी से देखा
उसके पेट को
जो भूख मे भी बढ रहा था
प्रकृति ने कोताही नहीं की थी
अपनी नियामत से नवाजने में
दिनभर दुत्कारने वाले किसी
कामांध की वासना का हुई
अंधेरे मे शिकार
लोग हंसते चुटकियां लेते
पूछते अनर्गल प्रश्न
पगली दाँत निपोर हंसती
औरते छीः कह मुंह फेर लेती
अकेले चीखते दर्द झेलते
भरी बरसात एक रात
ट्रैक्टर के नीचे
उसने पैदा की एक बच्ची
द्रवित हो किसी ने दी गर्म चाय
पुरानी साडी पुराने कपड़े
थोड़ा खाना
अब बच्ची को सीने से लगाये
दिनभर घूमती है अब वह पगली नहीं बुधिया की माँ है
सर्दी गर्मी बरसात झेलते
रहती है बुधिया के साथ
बिना किसी छत के
कुछ दिन बाद फिर पगली
के पेट पर बाढ आई
एक और लावारिस देह
फिर हुए कुछ गर्भपात
दिनभर घृणा से नाक सिकोड़ते
पर वही रात को देखते
फुटपाथ पर सोती
दिन पर दिन बढती
दो और नारी देह
दो और लावारिस शिकार
लोगों की रिपोर्ट की
एम्बुलेंस आई
रोती चीखती पगली को ले गई
पैर का जख्म सड़ रहा था
दोनो लड़कियां एम्बुलेंस के पीछे
रोते दूर तक दौड़ती रहीं
कुछ हाथों ने रोका
पुचकारा सहलाया
चलो हमारे घर काम करना
खाना कपडा देंगे
और वह सब जो
तुम्हारी माँ को देते थे
पगली फिर नही लौटी
आज वो लावारिस लड़कियां
पता नही कहाँ है
कोई नही जानता
●कवयित्री संपर्क-
●97703 36177