






पर्व विशेष कविता : तारकनाथ चौधुरी [छत्तीसगढ़, भिलाई-चरोदा, जिला-दुर्ग]

मंगलमय हो पर्व फागुनी
दीवाली-होली पर,मैंने लिखे थे कितने निबंध।
दीप-पटाखों की बातें और रंगों के कितने छंद।।
लिखता था मैं,पके फसल से आती जब खुशहाली।
रंग रोगन से उजले घरों में होती तब ही दीवाली।।
बेला,जूही और पलाश से जब कानन सज जाते।
फागुनी होली के स्वागत में मांदल खूब बजाते।।
अब तो ऋतुओं के बंधन से मुक्त होली- दीवाली।
बारहों मास ही उभय पर्व की दिखे छटा निराली।।
दूल्हे की बारात जो निकले दीवाली का भ्रम जागे।
जीते चुनाव तो उडे़ गुलाल और खूब नगाडे़ बाजे।।
त्योहारों का मूल भाव जन मन में प्यार जगाना है।
धर्म-जाति का भेद भूलकर,सब संग हर्ष मनाना है।।
कितना कुछ सिखला जाती है होली का यह पर्व हमें।
समदर्शी का पाठ सिखाती,भारती होने का गर्व हमें।।
मेरे अंतस् का सारा रंग,हृदय की पिचकारी में भरकर।
आज उलीचेगा तारक हर्षित मन से जाकर घर-घर।।
मुहावरों जैसी होली
कोई मुहावरा लगता है,लोकोक्ति कोई सच करता।
मस्ती में मस्ताने नाचे, ढोल-नगाडा़ जब बजता।
गली-मुहल्ले में दिखते, झुंड के झुंड ही रंगे सियार।
कौवौं सी कर्कश ध्वनियों में,करते रहते हैंं वे चीत्कार।।
अपनी-अपनी डफली बजाते छेड़ते दिखते अपना राग।
अंधों में काना राजा बन,कोई झूमकर गाता फाग।।
चेहरे पल-पल गिरगिट की तरह ही रंग बदलते रहते।
डंके की चोट पर विरोथी के लिए ज़हर उगलते रहते।
थुत्त नशेडी़ पान-सिगरेट के देते हैं जब दुगुने दाम।
दुकानदार पा जाता आम के आम गुठलियों के दाम।।
हुड़दंगी टोली के पीछे जब हैं दौड़ते कुत्ते।
सिर पर पैर लेकर हैं भागते और हाँफते रहते।।
अपनी प्रिया के गालों को जो रंगने से वंचित होते।
साँप लोटता छाती पर उनके रह-रह विचलित होते।।
दिल की पिचकारी में भर लो रंग प्रेम का होली में।
बैर पुराना भूल जगा लो तरंग प्रेम का होली में।।
• कवि संपर्क-
• 83494 08210
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chhattisgarhaaspaas
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