






ग़ज़ल आसपास : नूरुस्सबाह खान ‘सबा’

ग़ज़ल
महफ़ूज़ हूँ दुनिया के हरेक खौफ़ व ख़तर से
वाबस्ता हुई जब से मैं अल्लाह के दर से
वो और हैं जिनको है किसी शै की ज़रूरत
क्या शै नही मुझको मिली मौला तेरे दर से
इक बाढ़ सी आई है गुरूपों की अदब में
अल्लाह! बचाना मुझे इस फ़ितना व शर से
ये मिसरा है किसका मुझे भाता नही हरगिज़
“आसेब मोहब्बत का निकलता नही सर से”
सब शाह व ग़दा फैज़ उठाते हैं शब व रोज़
आता नही ख़ाली कोई सरकार के दर से
बेटी! मेरे सर को कभी झुकने नही देना
सरकाना नही अपना दुपट्टा कभी सर से
जिस राह पे तुम हमको कभी छोड़ गए थे
हम आज बहुत दूर हैं उस राह गुज़र से
माहौल ज़माने का अलमनाक है लोगो!
महफ़ूज़ नही कोई बशर आज के शर से
दामन है बुज़ुर्गों का मेरे हाथ में लोगो!
बहकी हूँ न बहकुंगी कभी अपनी डगर से
रहता है मेरे पेश नज़र वो हंसी पैकर
दामन मेरा लबरेज़ है हर लाल व गुहर से
वाबस्ता किसी दर से हुई जब से “सबा” मैं
अफ़कार दरख्शां मेरे अशआर में बरसे.
ग़ज़ल
जैसे सूरज है चांद तारा है
मेरा फ़रज़न्द भी न्यारा है
आसमां छत जमीं को बिस्तर कर
मुफ़लिसों ने किया गुज़ारा है
तुम न मानो मगर यही है सच
ग़म ने हर आदमी को मारा है
आप जब तक हैं साथ में मेरे
मुझको दुनिया का ग़म गवारा है
मेरी तुरबत पे वो नहीं आया
जिसकी फुरक़त ने मुझको मारा है
चाहे अंजाम जो भी हो इसका
जानों दिल उनपे हमने वारा है
जब भी गरदिश हमारे सर आयीं
हमने अल्लाह को पुकारा है
सारी दुनिया को जीतने वाला
अपने बच्चों के आगे हारा है
मुझको गिरदाब की नहीँ परवाह
अज़्मों हिम्मत मेरा सहारा है
एक भटकी हुई मैं कश्ती हूँ
दूर जिससे ” सबा’ किनारा है.
• संपर्क-
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chhattisgarhaaspaas
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