कविता
●मन
-श्रीमती अमृता मिश्रा
आज मन के अहसास,
परत दर परत
स्वत: खुल रहे हैं।
पौधों की नाजुक टहनी जैसे
दिल यूँ कुछ धड़क रहे हैं।
यह तुम्हारे साथ होने के
शायद अहसास है।
फिर क्यों मन और मस्तिष्क में
एक शब्द फिर से काश है !
चाहत तो है एक
दरिया-सा फूटने की।
मन की कुछ बातें,
तुमसे कहने की।
और सुकून से,
सब सुनने की ।
ये कैसी बर्फ की चट्टान है !
जो अहसासों की गर्मी में,
पिघल भी नहीं रही ।
एक नकली हँसी को ओढ़े
असली सी हँसी बिखर रही।
हृदय में उठती लहरों को,
खुद में समेटे सिहर रही।
मन जैसे उन कुटिल भावों का
मौन गरलपान कर जाता है।
तभी तो फिर से कहा, अनकहा
अंतस् में दफन कर आता है।
【 दिल्ली पब्लिक स्कूल, भिलाई की अध्यापिका, श्रीमती अमृता मिश्रा जी की ‘छत्तीसगढ़ आसपास’वेबसाइट वेब पोर्टल में ये दूसरी कविता है. इसके पूर्व में ‘ये जीवन की एक पहेली’ कविता को पाठकों/वीवर्स ने काफ़ी सराहा था. आज़ ‘मन’ शीर्षक से दूसरी कविता प्रस्तुत है, अपनी राय से अवगत करायेंगे, तो ख़ुशी होगी.]
●●● ●●●