कविता
●यूं ही मिल जाना किसी मोड़ पर
-दिलशाद सैफी
तुम ढूंढो मुझे कभी और मैं ढूँढू तुम्हें यही कही
आओ उन बीती स्वर्णिम यादों की गलियारों में
कभी खेतों में इन लहराते फसलों के ओट में
तो कही गाँवो की गलियों कभी छत के मुढेंर में
कभी शहरो की तंग गलियों से निकल आए
इन हसीन बर्फिली वादियों में एक शाम गुजारे
कभी सर्द हवा बन के तुम्हें सहला जाऊँगा मैं
कभी झीलों में निहार चेहरा शरमा जाना तुम
कभी फूलो सी खिल खुद में सिमट जाना तुम
और खुशबु बन तेरे दामन से लिपट जाऊँगा मैं
ऊँचे देवदार, चिनार के दरख्तों के नीचे बैठेंगे
नज़र हटे न एक दूजे से और शाम हो जाये
कभी तो मील जाये वो एक सुबह बस मुझे
जब तू हो और तेरे दीद से रुख मेरा शादाब हो
ऊँचे देवदार, चिनार के दरख्तों के नीचे बैठ लेंगे
भूल के दुनिया की रस्मों रिवाजों को एक हो जाये
तुम बस याद करना मुझे मुस्कुराहट बिखेर कर
मैं यहाँ खिलखिला पडूँगा तेरी बातें सोच-सोच कर
फिर कभी कही यू ही मिल जाना किसी मोड़ पर ,
आँखो ही आँखो में कर लेंगे वो सारी बीती बातें
हाथों को थाम बाहों में भरने की फुर्सत किसे होगी
बस बैठ दो घड़ी बाट लेंगे ये गम हम सारे मिलके…।
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