कविता, छेर छेरा आवत ह्रे- विजय पंडा
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●कविता
●छेर छेरा आवत ह्रे
छेरछेरा आवत हे
कोठी धान में नहावत है ;
हमर खेती के संगी साथी
गइया बइला
मन मस्त पगुरावत हैं।
भोर ले घाम सुरुज देवता बगरावत हे
चिरई चिरगुन किंजर किंजर के आकास म
छत्तीसगढ़ के परेम सन्देश गुनगुनावत हे।
छेरछेरा आवत हे
कोठी धान में नहावत हे ;
नानहीँ दाऊ ददा सियान
पहनिहिं नवा नवा कुरता
भुइयाँ टिकरा ल देख के
पुरखा मन आ जाथें सुरता।
गहना गुठा ल मांज धो पहनबो
बिहनिया ले धान के दान ल
झूम -झूम के करबो।
लइका के मन गुदगुदावत हे
सपना में आज ले रोटी पीठा खात हे।
कुछु बछर के जिनगानी
ए हर ये संगी बुलबुला के पानी।
आ संगी जुरमिल के रहिबो
छत्तीसगढ़ म परेम के माला ल गुथंबो।
छेरछेरा आवत हे
कोठी में धान में नहावत हे ;
मन हर्षावत हे
हमर परदेश के मन खिलखिलावत हें ।
आगा संगी छेरछेरा मनाबो ,
हमर तीज त्यौहार ल हँस हँस मनाबो।
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