कविता- रमेश कुमार सोनी, रायपुर, छत्तीसगढ़.
●डरता हुआ विकास
-रमेश कुमार सोनी
अपनी– अपनी खानदानी पनही
हाथ में धरे रेंग रहे थे
मंगलू– बुधारू जैसे लोग
साफ़– सुथरे रास्तों पर भी!
उनमें डर ब्याप्त था
कहीं रास्ते में
महाजन बुरा तो नहीं मानेगा?
खप चुकी हैं पीढ़ियाँ
ब्याज का चक्र गतिमान है
पेट में जिन्दा भूख की तरह|
चेहरे की झुर्रियों से
डर की रेखाएँ गिनी जा सकती हैं
वैसे भी इनकी हाथों में
भाग्य की रेखाएँ कहाँ होती हैं?
पूरे गाँव को पता है कि–
कैसे निभाना है इस रीत को,
किस घाट में नहाना है,
कहाँ का पानी पीना है,
कहाँ हँसना,कहाँ बोलना और
कहाँ सिर्फ जो हुकुम बोलना है|
स्कूल और विकास भी डरते हैं
गाँव की इन गन्दी पगडंडियों से
इस गाँव के कुछ बच्चे
डामर की पक्की सड़कों पे
मोटर– गाड़ी देखने जाते हैं
सड़कों पे फर्राटा भरती हैं कारें
चमचमाती हुई स्कूली बसों से
कुछ बच्चे हाथ हिलाकर इन्हें बुलाते हैं
भाग जाते हैं डर का पैबंद पहने ये बच्चे
अपनी – अपनी टायर घुमाते हुए|
इन्हें ऐसे साफ़–सुथरा पहने
बच्चों से भी डर लगता है !
इन जैसों के लिए
सड़क तक जाकर
उन्हें देखना भी मायने रखता है
इन बच्चों की आँखों में
साहस और निडरता अँखुआ रहा है
ऐसी ही आँखें चुभती हैं कुछ लोगों को क्योंकि –
इनके पीढ़ियों की सोच भी गिरवी है कहीं….|
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