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नज़्म- तारकनाथ चौधुरी

4 years ago
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अजीब जंग सी
छिडी़ है
दर्द और हौसलों के दरम्याँ…
जाने कब उसकी
शातिराना चाल ने
डाल दी बेडि़याँ मेरे
पाँव में,
रुक सी गई रवानी
जि़ंंदगी की….
मात न खाने की जि़द
मेरे हौसलों की
काटती हैं रोज़ जंजी़रें
अपने शमसीरों से
मगर दर्द है कि
तिलस्मी किरदार की तरह
जी उठता है बारबार
मरकर भी…
जाने कब ख़त्म होगा
ये खेल-
शह और मात का
मालूम नहीं, पर
यकी़ं है मुझको
जीतूँगा मैं ही और
दर्द मुझसे हारेगा..
चल पडूँगा फिर से
मंजि़ल-ए-मक़सूद पर

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