






कविता- सरोज तोमर
●फ़ागुन जैसा मन हुआ…!
-सरोज तोमर
[ भिलाई-छत्तीसगढ़ ]
जा बैरिन पुरवाई तू ,चुनरी से मत खेल ,
रेत-घरौंदे को रहा ,बचपन अभी सकेल ।
कागा जाकर बोल तू,और अटारी-ठाँव ।
झूठी तेरी हर खबर,कोई न आवे ठाँव ।
बात न माने डाकिया,पाती देता रोज़,
संबोधन किसने लिखा ?थक जाता मन सोच ।
सीख रहा पढ़ना सुआ ,तोल रहा हर बोल ,
ढाई आखर सीख ले ,यही मंत्र बेमोल ।
सुघड़ नीड़ बुनने लगी,मैना सुख में लीन ,
सारी दुनियाँ से परे अपने में तल्लीन अब चिंता है क्या भला ,आवे पवन झकोर ,
सपने रचती रैन की ,सोना ढलती भोर ।
फागुन जैसा मन हुआ ,खंजन -नैना आँज ,
अक्षत और अबीर ले ,छत से उतरी साँझ ।
टेसू-टेसू अंग है ,बिखरा है मधुमास ,
शबनम की मोहताज़ है ,पँखुर-पँखुर प्यास ।
[ ●प्रगतिशील विचारधारा से जुड़ी सरोज तोमर रचनात्मक लेखन में निरन्तर सक्रिय हैं. ●सरोज तोमर की 2 काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं. ●विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व दूरदर्शन में सरोज जी की कविताएं प्रकाशित होते रहती है. ●’छत्तीसगढ़ आसपास’ की शुभचिन्तक सरोज जी की वेब पोर्टल में एक औऱ मौलिक रचना ‘फ़ागुन जैसा मन हुआ…!’ प्रकाशित कर रहे है, अपनी राय से अवगत कराएं. -संपादक ]
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