कविता- आलोक शर्मा
•कहना है कुछ…बस यूं ही…!
•आलोक शर्मा
[ ख्यातिलब्ध मंचीय कवि आलोक शर्मा, देश के कई मंचों से अपनी हास्य रचनाओं के माध्यम से निरन्तर गतिशील हैं. आकाशवाणी,दूरदर्शन एवं देश के कई महत्वपूर्ण चैनल से आलोक शर्मा की कविताएं निरन्तर प्रसारित होती है. पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छप रहे हैं. कविताओं के माध्यम से कई कार्यक्रमों में आलोक जी,की रचनाओं को ‘मोटिवेशनल’ औऱ ‘कोड’ की जाती है. देखिये एक कोड की हुई ‘मोटिवेशनल’- ‘भगवान का दिया कभी अल्प नहीं होता,बीच में जो टूट जाए, वह संकल्प नहीं होता. पराजय को लक्ष्य से दूर रखना यारों, क्योंकि विजय का कोई ‘विकल्प’ नहीं होता.’
-संपादक ]
“पहले हाट-बाजार के मजे उड़ाते
पैसे दो पैसे पाते
तो जलेबी खाते थे
अब हालात ठीक है
तो चिरायता खा रहे हैं!
जब शहर भर चक्कर लगाते थे
तो घर की याद बुलाती थी
अब घर बैठे हैं
तो चक्कर आ रहे हैैं!
जब थककर सोते थे
तो जगाने से जागते थे
अब नींद नहीं आती है
तो कहते हैं,..सो भी जाओ!
मेहनत रंग लाती थी
तब खुशी खुश होकर आती थी
अब खरीदने जाते हैं
तो खुद बिक जाते हैं!
पहले कहते थे
पहले आओ
और सब पाओ
अब कहते हैं जुगाड़ लगाओ और काम बनाओ!
तब तो कहीं भाव से ही
डूब जाते थे
अब कोई धकेलकर
डुबा जाता है!
पहले सब सोचते थे
आगे ठीक हो जाएगा
अब सोच रहे हैं
आगे..पता नहीं क्या होगा?
नहीं पता
क्या होगा रावण की सभा में
यदि किसी अंगद के पांव
लड़खड़ा जाएं
क्या होगा
जब सीताहरण में
जटायु अनदेखा कर लें?
अब हर चीज में सावधानी पर यकीन कर रहे हैं
और यकीनन सावधानी से मर रहे हैं
गुलाब भले ही कांटों से छिल रहे हैं
मगर चमन के वास्ते
आंसू और ओस दोनों खिल रहे हैं!
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