कविता- सरस्वती धानेश्वर
•मेरी कविताओं की उन्मुक्त उड़ान•
-सरस्वती धानेश्वर
मैं भी हूं तुम भी हो
ना मुझ बिन तुम, ना तुम बिन मैं।
अपरिमित है हमारे प्रेम का व्यास, ख़ामोश से पलछिन और गुजरे लम्हों का एहसास।
हर लम्हा अब रिस रहा है बूंद बूंद,
साझा है आस के साथ विश्वास।
गुजरा हर लम्हा ठिठका खड़ा देख रहा है, अनुत्तरित है कयी सवाल।
क्यों मौसम की तरह आते हो तुम?
मुद्दत से कोई खतोकिताब नहीं,न कोई मुलाकात का शवाब,न कोई इकरार न इंकार का अख्तियार, फिर क्यों रहता है वो चेहरा ख्यालों का हमराज।
अपनी व्यथा के संकोच से मुक्त पलछिन बन उतर पड़ते हो ख्यालों में,
मन की देहरी और उन्मुक्त सी देह पर तय होता है तुम्हारा आना और पहरों मुझसे बतियाना।
उकेरता है स्पर्श का संवाद कुछ नये चित्र,
गूंजती है एक थाप उन्माद की,
इत्र की खुशबू बन,महक उठती है, तन-मन की चारदीवारी,
ताज़ा हवा का झोंका आकर थाम लेता है
पसीजती हुई हथेली और झंकृत हो उठती है,हर धड़कन।
खामोशी के साथ धीरे धीरे-धीरे होने लगता है तुम्हारा मुझमें एहसास।
विस्तृत है तुम्हारी संवेदनाओं की संजीदगी,
मौसम की तरह हैं तुम्हारे तमाम रंग,
तुम्हारी मधुर मुस्कान मुझे जोड़ देती है कल से, और सोख लेती है, मेरे अंतस की उदासी को।
तुम्हारे चेहरे पर शिकन गवारा नहीं मुझे।
मैं देखना चाहती हूं तुम्हारे सारे रंग, तुम्हारी सारी जीजिविषाएं,सुनना चाहती हूं सारे संवाद
अपलक देखना चाहती हूं तुम्हारी पलकों की रागिनी।
मुझे तो बस पूछना है तुमसे,क्या तुम अपने एहसासों के छोर से बांध लोगे मेरे चंद आंसू,मेरी संवेदनाओं को दे पाओगे अपने कुछ शब्द, जिन्हें मैं एक सूत्र में बांध कर अपनी कविताओं को दे पाऊं प्रेम की एक उन्मुक्त उड़ान ।
क्या तुम मेरी कविताओं को चरितार्थ करोगे!
[ भिलाई-छत्तीसगढ़ की सरस्वती धानेश्वर ‘विश्व शांति समिति, भारत’ व ‘अन्तराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन’ की निदेशक हैं● ]