कविता- डॉ. बीना सिंह
•वो भिखारन•
-डॉ. बीना सिंह
हां हां वह सच में भिखारन थी
ना जाने किस मां की अभागन थी
अल सुबह रोज भीख मांगने आया करती थी
भूख लगी है इशारे से बताया करती थी
फिर एक दिन ऐसा आया उसका गली में आना बंद हो गया
हमने सोचा शायद दूसरी गली से
भीख मांगने का अनुबंध हो गया
फिर अचानक एक दिन बच्चों के कपड़े के दुकान के सामने वह दिख पड़ी
पहले मैं ठीठकी रुकी फिर मेरी नजर उसके पेट पर पड़ी
कमजोर बदन संग पेट पर उसके उभार था
ना जाने उस मासूम पर किस दरिंदे का प्रहार था
अपने बचाव पर उसने पूरी ताकत लगाई होगी
रोई चीखी चिल्लाई होगी
मगर उसकी आवाज किसी को सुनाई कैसे पड़ती
वह खुद ही खुद उस दरिंदे से रही लड़ती
वह जुबान से मुक थी शरीर से दिव्यांग थी गवारन थी
हां हां वह सच में भीखारन थी
ना जाने किस मां की अभागन थी
[ पेशे से चिकित्सक डॉ. बीना सिंह भिलाई-छत्तीसगढ़ से हैं. रचनात्मक लेखन में सक्रिय डॉ. बीना सिंह की कविताएं देश की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं. टीवी चैनल में भी प्रस्तुति दे चुकी हैं. ‘साझा संग्रह’ में कविता का प्रकाशन.● ]