कविता- दिलशाद सैफी
गीली मिट्टी सा मन
-दिलशाद सैफी
[ रायपुर-छत्तीसगढ़ ]
अथाह स्वप्न नैनों में लिए
रजनी की अंधेरी खोह में
भागता दौड़ता सहमा सा
गीली मिटटी सा मन ये…!
अदृश्य कल्पनाऐं सताये
विचलित होकर घबाराये
कुछ देर ठहरा फिर चला
गीली मिटटी सा मन ये…!
राजनीति की गलियारों में
कुछ धर्म के ठेकेदारों ने
बो गये नफरतो की फसल
गीली मिटटी सा मन में…!
भ्रष्टाचार की बेड़ी में जकड़ा
और कभी अहं में अकड़ा
उलझा रहा विवादों में
गीली मिटटी सा मन ये…!
कुछ नेताओं की बातों में
दंगे और फसादों में
अपनों को सदा ही खोता रहा
गीली मिटटी सा मन ये…!
नश्वर ये भौतिक काया है
संसार एक मोह माया है फिर
मृत आत्माओं में क्यों फूंक रहा स्वर
गीली मिटटी सा मन ये…!
अभेद रहा न जान सका
ह्रदय का मर्म न पहचान सका
सदैव दृगभ्रमित होता रहा
गीली मिटटी सा मन ये…!
यौवन की मादकता में डूबे
आकर्षित करते पुष्प पराग इन्हें
जब टूटा स्वप्न लोक रोया बहुत
गीली मिटटी सा मन ये…!
कुछ लोग भ्रमित करते मंजिल से
तब बाँध संस्कारों की बेड़ी में
भर देता नव उच्छ्वास ह्रदय में
गीली मिटटी सा मन ये…!
अन्तर्द्वन्द सा है चलता रहता
एक दीपक जलता बुझता
कुछ क्रौन्ध रहा बाहर भीतर
गीली मिटटी सा मन में …।
■■■ ■■■