कविता आसपास- संतोष झांझी
●हिरनी के पांव थम गये
[ 30 वर्ष पुरानी,छंद मुक्त पहली कविता ]
एकदिन माँ की गोद से
किलक कर उछली
घुटनों के बल जमीन पर आ गई
फिर पलट कर
गोद की तरफ नहीं देखा
अंगुली पकड़ दो कदम क्या चली
मानों पंख ही लग गये
फिर पलटकर
नीचे की जमीन को नहीं देखा
और दौड़ शुरू हो गई
गुड्डे गुड़ियों सहेलियों के बीच
खिलखिलाते खेलते
इमली चूसते
स्कूल की बाऊन्ड्री पार कर
आगे बढी
एक दुपट्टा गले से आ लिपटा
आँखों में इन्द्रधनुष तैरा
फिर ? फिर…
पीछे पलटकर नहीं देखा
कहाँ गया गुड्डे गुड़िया का घर ?
बस दौड़ती रही…
संगीत और स्वरों की थिरकन
मन पाँव थिरक उठे
स्वप्न आँखों में तैरते रहे
और,और तेजी से दौड़ती रही
अचानक, आगे बढ
किसीने थाम लिया हाथ
हिरनी के पाँव उछाल लेते हुए
लाल जोड़े में उलझकर,थम गये
फिर भी,पीछे पलट नहीं देखा
हिरनी के उछलते पैर
पायल,महावर के
बोझ से बोझिल,थम गये
थम कर भारी हो गये
तभी मेरा बचपन
मेरी ही गोद में किलक उठा
किलका,उछला घुटनों चला
अंगुली पकड़ चला
फिर वही सब,वही गुड़िया
वही सहेलियां, कच्ची अमिया
इमली चूसना
स्वप्नों के इन्द्रधनुष में तैरना
फिर उस हिरनी के पाँव में
पायल महावर
लाल जोड़े की झिलमिल
फिर वही, वही सब दोहराव
बस…बस तभी अचानक
दौड़ खतम हो गई
उछाल, स्वप्न, थिरकन
सब समाप्त,थके थके पांव
जीवन जैसे ठहर गया
डरते डरते इतनें वर्षो बाद
जी चाहता है पलटकर देखूं
खोनें पानें के बीच अंतर तलाशूं
मां की गोद की वह गरमाहट
आँचल की वह खुशबू
सुबह उठनें के लिये
पुकारता माँ की आवाज
सिन्दूर बिन्दी से दमकता भाल
सद्यःस्नान से टपकते खुले बाल
क्या कभी आँख खोलते ही
सुबह देख पाऊँगी?
उस घर की सीढियों पर
क्या अब भी गूंजती होगी–
बाऊजी के पांव की आवाज
जिसे सुनते ही सभी सर
झुक जाते थे एकसाथ
अपनी किताबों पर
और वह खिड़की
जिसके पास बैठकर
बाऊजी पढते थे अखबार
उनके सिगरेट की निरंतर झरती राख
उस खिड़की के नीचे लगे
किसी दुकान के साइनबोर्ड के पीछे
क्या अब भी अवशेष होगी?
सड़क के लैंप पोस्ट की रोशनी
क्या मेरे कमरे की खिड़की से
मेरे पलंग पर ही पड़ती होगी?
डाँट के डर से उसी रौशनी में
कितने नावेल पढे
क्या इसका उसे हिसाब होगा
मेरे कमरे के झरोखे में
रोज रात उदास बैठने वाली
वो गौरैय्या अब कहाँ होगी ?
दौड़ खत्म हुई तो पीछे देखना
कितना सुखद कितना दुखद
अंधेरे में गई रात तक
क्या अब भी गूंजती होगी
बाऊजी की बाँसुरी की आवाज?
क्या उस सड़क को याद होगा
मेरा स्कूल जाना
बचपन से बड़े होंने तक
उसपर चलना
क्या सड़क किनारे वह
पान दुकान अब भी होगी?
जो लड़कियों का झुंड देखकर
कत्थे के लोटे मे ,पीतल की छड़
जोर से घंटी जैसी बजाता था
कहाँ होगी वह बुढिया
जो कच्ची इमली बेचती थी
चौराहे पर रोज कार लेकर
खड़ा रहनें वाला लड़का
अब कहाँ होगा
क्या इस ढलती उम्र में भी
उसे याद होगा —
मेरा गुस्से से मुंह बिचकाना
उसकी निराशा से खिंची सांस
हवा में घुलना
और–
मिठाई दुकान का वो ‘निमाई’
क्या अब भी उस कुर्सी पर
वैसे ही बैठा होगा
जो मुझे आते देख
कुर्सी और ग्राहक छोड़
शरमा कर भाग जाता था
फिर छुपकर आड़ से देखता था
पता नहीं क्यों ?
स्कूल से बाहर वो चूनर वाला
क्या अब भी चूनर आमपापड़ बेचता होगा ?
उसका घर से भागा बेटा
क्या लौट आया होगा ?
स्कूल के–
वो पंडित जी शास्त्री जी
अब कहाँ होंगे
क्या अंग्रेजी के पंडित जी को याद होगा,,क्लास में कविता लिखनें पर, बतौर सजा
अंग्रेजी किताब पर ही
घंटी बजने तक कविता लिखवाना ??
कहाँ होंगी सब सहेलियां?
मेरी तरह थकी थकी
पर जिन्दगी से तृप्त
कुछ अतृप्त भी
क्या उन्हें भी याद आता होगा
बिना बात खिल खिलाना
गुनगुनाना, झट रोना,
झट शर्माना
लड़ना और मनाना ?
क्या मेरी ही तरह उनका भी
छूट चुका होगा वह शहर
वे लोग, वह परिवेश
वह द्वार,वह देहरी ?
क्या उनके भी हिरनी से पाँव
थक कर थम चुके होंगे
मेरी तरह
मेरी ही तरह