रचना आसपास- गोविंद पाल
●मैं जिंदगी का हर वो,
किताबें आजकल पढ़ रहा हूं,
जो मेरे आसपास,
औऱ मेरे इर्दगिर्द है.
-गोविंद पाल
[ भिलाई-छत्तीसगढ़ ]
पढ़ कर आगे बढ़े
कई डिग्रियां ओढ़े किताबों से
उपार्जन का साधन बनाया किताबों से
कभी मित्र बनाया किताबों को
और कभी सीढ़ी बनाया
मंजील पर चढ़ने के लिए,
पर
किताबें पढ़ना कभी थमा नहीं
आज तजुर्बे और
उम्र के दहलीज पर आकर भी
निरंतर पढ़ाई जारी है,
आज दुनिया दारी के
हर चीजें पढ़ता हूं
लोगों का चेहरा पढ़ता हूं
कभी- कभी अपने
अतीत को भी पढ़ लेता हूं
मानवीय मूल्यों को भी
पढ़ने की कोशिश करता हूँ
कभी मित्रों के व्यवहार में अचानक
बदलाव को पढ़ता हूं
और कभी रिश्तों के
खट्टे – मीठे अहसास को,
कभी – कभी अपने भीतर
उत्पन्न होने वाली
कड़वाहट को भी पढ़ लेता हूँ
और कभी लोगों की चेहरे पर उभरी हुई वह झुर्रियां
भी पढ़ने का प्रयत्न करता हूँ
जिन पर उम्र की तजुर्बे और
संघर्षों की सिलवटें साफ़ साफ़ दिखाई पड़ती है,
आज मौत के तांडवों के बीच
कालखंड के उस समय चक्र को भी पढ़ रहा हूँ
जहां समस्त मानव जाति को
पढ़ने में कहां- कहां चूक हुई है,
मैं जिन्दगी का हर वो
किताबें आजकल पढ़ रहा हूँ
जो मेरे आस पास
और मेरे इर्द-गिर्द है।
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