हज़ल- रामबरन कोरी ‘कशिश’
●इम्तिहाँ हमने जवानी में,
दिया था जो ‘कशिश’उम्र,
गुज़री मगर अब तक,
न नतीज़ा निकला.
-रामबरन कोरी ‘कशिश’.
जिसे समझा था पूरा वो अधूरा निकला जुल्फ से हीर मगर तन से वो रांझा निकला
सूना था मैंने बहुत मीठी है उसकी बोली सामने आया तो वो शख्स करेला निकला
वो जो चेहरे से कुंवारा दिखाई देता था जब मिला घर पे तो छ: बच्चों का अब्बा निकला
टूटी चप्पल है मेरे पांव में लेकिन ऐ जनाब एक जमाना था मेरे पांव से न जुता निकला
बस उसी दिन से कयामत है जिन्दगी मेरी मेरे संदूक से जब आपका चिटॖठा निकला
जो नचाता रहा औरों को मदरी बन कर घर के अंदर वही देखा तो जमूरा निकला
इम्तिहाँ हमने जवानी में दिया था जो कशिश उम्र गुजरी मगर अब तक न नतीजा निकला
[ ‘हज़लकार’ के रूप में प्रतिष्ठित, रामबरन कोरी ‘कशिश’ मंचों में जाना-पहचाना नाम है. कई साहित्यिक संगठनों से जुड़े ‘कशिश’ वॉलीवाल फेडरेशन ऑफ़ इंडिया के राष्ट्रीय निर्णायक भी हैं. छत्तीसगढ़ वॉलीवाल रेफ़री बोर्ड,छत्तीसगढ़ थ्रोबाल रेफ़री बोर्ड से भी पूर्व में जुड़े रहें. ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ में ‘कशिश’ की पहली ‘हज़ल’ प्रस्तुत है, कैसी लगी लिखें-
•संपादक ]