■आज़ पर्यावरण दिवस पर विशेष : •डॉ. माणिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’.
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●ग़ज़ल : वन में जीवन होता है
-डॉ. माणिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’
[ कोरबा-छत्तीसगढ़ ]
वन में जीवन होता है
फिर क्यों काँटे बोता है
मार कुल्हाड़ी पेड़ों पर
मुफ़्त मुसीबत ढोता है
उसकी छाँव तले राही
सुस्ताता है , सोता है
खटना पड़ता है जग में
पाता है , जो खोता है
मरुथल ने हरियाली दी
उसको,जिसने जोता है
जो करता है मनमानी
वो जीवनभर रोता है
●कवि संपर्क-
●94241 41875
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