■ग़ज़ल : ●डीपी लहरे ‘मौज़’.
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●कभी थे मौज़ हम सजदा-रवां
उनके हुज़ूर आख़िर.
●ख़ुदा की शक़्ल में निकले
जो पत्थर याद आते हैं.
-डीपी लहरे ‘मौज़’
[ कवर्धा-छत्तीसगढ़ ]
जो गुज़रे तेरी क़ुरबत में वो अक्सर याद आते हैं
मुहब्बत के हसीं वो पल ऐ दिलबर याद आते हैं
ग़रीबी में ही तो आटा हुआ गीला सदा अपना
हमेशा बदनसीबी के ही मंज़र याद आते हैं
पिता की डाँट माँ का प्यार ही थे मिल्कियत अपनी
वो पल थे हम मुक़द्दर का सिकंदर याद आते हैं
हमारे यार बचपन के भले हों दूर आँखों से
दिलों में आज भी रहकर बराबर याद आते हैं
कभी थे मौज हम सजदा-रवाँ उनके हुज़ूर आख़िर
ख़ुदा की शक्ल में निकले जो पत्थर याद आते हैं.
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