■होली आगमन पर दो लघु कथाएं : महेश राजा.
♀ पीछे छूटता हुवा गांव
ट्रेन ने गति पकड ली थी।टेलीफोन के खंभे ,नदी,पहाड़ सब पीछे छूट रहे थे।विवेकचंद्रजी अपनी पत्नी और दो बच्चे अमित और नीमू के साथ गांव से लौट रहे थे।इस बार की होली जिद करके गाँव में ही मनाने को सोचा था,वरना उनकी पत्नी व बच्चों की ईच्छा जरा भी न थी।
गांव मे माता पिता और छोटाभाई अपनी पत्नी तथा एक बच्चे राजू के साथ रहते थे।अच्छी सर्विस मिल जाने से वे शहर मे ही रच-बस गये थे।उनकी ईच्छा क ई बार गांव आने की रहती,पर बाकी लोगों की अनिच्छा देख कर कभी वे अकेले ही हो आते तथा मातापिता से बहाने बना देते कि बच्चों की परीक्षा है,ईत्यादि।पर हर माह कुछ रूपये भेजना वे नहीं भूलते थे।वे जानते थे कि आज वे जो कुछ है,वह माता पिता की मेहनत और आशीर्वाद का नतीजा है।पर उनकी पत्नी यह सब न समझ पाती।
ट्रेन मंथर गति से चल रही थी।
-“मम्मी कितने गंदे होते है,गांव के लोग….और वो ईडियट राजू ने तो मेरी नयी वाली शर्ट ही गंदी कर दी।उस पर रंग डाल दिया।मैंने भी वो चांटा मारा,बच्चू याद रखेगा।”-अमित कह रहा था।
-“वो सब तो ठीक…पर तुमने अपने पापा को नहीं देखा?सुबह से कैसे निकल गये थे,घर से…जब लौटे तो पूरे भूत से नजर आ रहे थे।”-यह उनकी पत्नी की आवाज थी।
-“मम्मी गांव मे कमोड़ भी नहीं।हमें नहीं जमता।आप पापा को गाँव जाने को ना कह देना-“नीमू कह रही थी।
आंखे मूंँदे मूंँदे सारी बाते सुनकर विवेकचंद्रजी बचपन की यादों मे गुम हो गये।गांव में उनकी शैतानी के किस्से प्रसिद्ध थे।बड़े शरारती,सबको परेशान करते।कभी वे किसी के पेड़ की ईमलियां तोड़ लाते,या आम।कभी किसी ग्वालिन की मटकी फोड़ देते।होली के समय तो वे गजब ही करते।छोटे से पोखरे मे ढेर सारे टेसू के ढेर सारे फूल तोड़ कर घोलते।फिर जो भी निकलता उसे पकड़कर उसमें डूबो देते।शिकायत होने पर पिताजी लकड़ी लेकर दौड़ाते।
वह चौंक पडे-“…नहीं.. नहीं बाबूजी,मैंने कुछ नहीं किया।”-पत्नी ने उन्हें झिंझोड़ कर उठाया-“,यह क्या बडबडा रहे है आप?कोई सपना देखा क्या?चलिये,उठिये… अपना शहर आ गया।”
-“हां.कुछ नहीं… कह कर आंँखोंँ की कोर से छलक आये आंँसूओंँ को रूमाल से पोंँछते हुए वे कुली तलाशने लगे।
♀ इस बार होली में लक्ष्मी आगमन
चारों तरफ ढोल व नगाड़ों की आवाज गूंज रही थी।
उसका मन कहीं नहीं लग रहा था।मन भीतर से बहुत बैचेन था।पास के कमरे से पिताजी के खांसने की आवाज आ रही थी।
जब भी होली का त्यौहार आता,घर मे खामोशी छा जाती।होली के दिन ही माताजी का देहांत हुआ था।
तबसे इस घर में होली नहीं मनायी गयी थी।
यूं सबका मन होता कि होली मनाये,परन्तु पिताजी की खामोश निगाहें देखकर कोई भी साहस न करता।
बाहर होली जलने को थी।सभी आनंद से नाच रहे थे।
वह अपने कमरे के बरामदे मे चहलकदमी कर रहा था।
बाजु के कमरे से पत्नी के कराहने की आवाज आ रही थी।वे पूरे दिनों से थी।दाई ने बताया था,रात तक बच्चा हो जायेगा।
धीरे धीरे बाहर शोर बढने लगा।दस बजने वाले थे।तभी बाहर के कमरे से बेबी के रोने की आवाज आयी।उसका मन हल्का हो गया ।पिताजी भी दौडे दौडे बाहर आये।
दाई ने कमरे से निकल कर पिताजी को कहा,बधाई हो दादा जी घर मे लक्ष्मी आयी है।
इतना सुनना था कि पिताजी की आंखे चमक उठी।पांच सौ रूपये का नोट दाई मां को दिया।
वह पिताजी के चरणों मे गिर गया।
पिताजी ने उसे खूब आशीष दिये।
अब वह कुछ देर सोने की सोच रहा था।कल रंग है।वैसे भी आफिस नहीं जाना।
तभी पिताजी नये कुरता पाजामा पहने हाथ मे गुलाल लिये आये।बोले,तू बाप बन गया है रे….फिर भी सोया पडा है।चल आज होली की शुरुआत तेरे कमरे से ही करते है।
पूरे घर मे हर्षोल्लास छा गया।वह पत्नी के कमरे मे गया।वहथकी मुस्कान से उसे देख रही थी।पास ही नन्ही परी सोयी पडी थी।
सब होलिका पूजन की तैयारी करने लगे।
सभी खुश थे कि बरसों बाद इस घर मे होली खेली जायेगी।
पिताजी कमरे मे अम्मा की तस्वीर को देख कर आंसू पोंछ रहे थे।
.मुहल्ले से होली जल गयी थी।उसकी लपटे उपर तक जा रही थी।
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