■लघुकथा : तारक नाथ चौधुरी.
♀ जुगत
उसको चिढ़ थी तो केवल इस जुमले से-“जो मजा़ इंतजा़र में है वो विसाल- ए-यार में नहीं।वक़्त की पाबंद शमशाद को किसी की ‘देरी’ पर बडा़ गुस्सा आता था,बहुत से लोगों से रिश्ता भी टूटा लेकिन खु़द को न बदल पाई।
आज स्टेशन पर आते ही जब उसके कानों से दिल्ली जाने वाली ट्रेन के दो घंटे विलंब से आने की सूचना टकराई तो तिलमिला उठी।जाने क्या-क्या बुदबुदाई और एक बेंच पर जाकर बैठ गई।दो घंटे(और भी देर होने की आशंका लिए)का समय झुँझलाहट में बिताने से बेहतर मैग्जी़न या बुक पढ़ना है-सोचकर वो ए.एइच.व्हीलर बुक स्टाल से गृहशोभा और वागर्थ पत्रिकाएँ ख़रीद लेती है और वापस उसी बैंच पर आकर बैठ जाती है।अभी पढ़ना ही शुरु किया था कि चार-पाँच बच्चे शोर मचाते हुए लुका-छुपी खेलने लगे।बच्चे शमशाद की बेंच के पीछे आकर छुप जाते फिर शोर मचाते।उनकी धमाचौकडी़ से शमशाद को पढ़ना मुश्किल हो रहा था और अंदर ही अंदर इन शरारतियों को शाँत करने का जुगत लगा रही थी।
अचानक जैसे उसके दिमाग़ की बत्ती जल उठी और बच्चों से मुखा़तिब होते कहने लगीं-“देखो बच्चों,हमारे एक छोटे से सवाल का जवाब अगर दे सकोगे,तो मेरे बेंच के पास खेल सकोगे और एक- एक चोकोबार भी मिलेगा,बोलो तैयार हो?”
बच्चे इस आॅफर का फा़यदा उठाने की लालच में,शमशाद के बुने जाल पर अपना पैर डाल दिए।
अब शमशाद ने कहा-“बताओ तो बच्चों एक दर्ज़न केला पाँच बंदर बराबर -बराबर कैसे खायेंगे,बिना केलों के टुकडे़ किए?”
फिर क्या था बच्चे,लगे गुणा-भाग करने।कोई उंगलियों में गिनता,कोई आसमान की ओर देखते बुदबुदाता तो कोई अपने ही साथी को इशारे से पूछता।
उनको पहेली में उलझाकर और मन ही मन मुस्कुराकर शमशाद मृदुला गर्ग की कहानी पढ़ने लगी।ध्यान तब टूटा जब निर्धारित ट्रेन के आने की उद्घोषणा बारबार होने लगी।
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