लघु कथा, गर्दिश के दिन- संतोष झांझी, भिलाई-छत्तीसगढ़
गर्दिश के दिन
मुंह से निकला एक शब्द कभी कभी इन्सान का पूरा परिचय देकर उसकी वर्षों से संजोई अच्छाई को पलभर मे धो सकता है।
बेटी की शादी के छै महीने बाद उसकी अचानक गंभीर बीमारी में सन्ध्या के घर की आर्थिक स्थिति बुरी तरह डाँवाडोल हो गई।तब उन गर्दिश के दिनों में सन्ध्या ने घर की दीवार से लगा बाहर एक कमरा बनवाया।इसके लिये उसे अपने कंगन बेचने पड़े।उस कमरे मे सन्ध्या ने ब्यूटीपार्लर का काम स्टार्ट किया।
बेटी की जो सहेलियाँ पहले मुफ्त मे बाल कटवाती थीं वे पार्लर खुलने के बाद भी उसी तरह बाल कटवाकर चल देतीं । जब कि उन्हें कोई आर्थिक परेशानी नहीँ थी। अगर वो पैसा देना भी चाहती तो भी शायद सन्ध्या न लेती पर उन्होंने पेमेन्ट करनें की कभी जहमत ही नहीं उठाई।
सन्थ्या के पति के एक दोस्त के परिवार का घर मे वर्षो से आना जाना था।वो पढे लिखे सुसंस्कृत लोग थे। सन्ध्या के परिवार की अचानक बिगड़ी आर्थिक स्थिति से भी वो परिचित थे।ब्यूटी पार्लर खोलने के पीछे की सारी परेशानियां भी वो अच्छी तरह जानते थे।
इसबार बहुत दिन बाद वो घर आये। सन्ध्या और उसके पति ने उनका स्वागत किया। सन्ध्या ने पूछा— क्या बात है निशा इसबार बहुत दिन बाद हमारी याद आई ?
निशा हँसकर बोली– अरे भाभी जब भी आपके घर आनें के लिये घर से निकलो मम्मी सावधान करनें लगती हैं—सन्ध्या के घर जा रहे हो अरे वो नाई की दुकान खोलकर बैठी है देखना कहीं तुम्हारे बाल न काट दे ?
सुनकर सन्ध्या सन्न रह गई ।निशा की सासू माँ पढी लिखी आधुनिक महिला थी तब ऐसी सोच ? उन्हे तो निशा को यह कहना चाहिये था—कहीं तुम भी बाल मत कटवा लेना।
आज वर्षों बाद निशा के कटे बाल देखकर एकबार ख्याल आया कहूं —अपनी मम्मी जी को बता देना मेरे बाल सन्ध्या ने नहीं काटे।
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