संस्मरण, ननिहाल की छत -अंशुमन राय, इलाहाबाद-उत्तरप्रदेश
क्या! अरे!मामा लोग अपना घर बेचकर कोलकाता जा रहे हैं ?
अचानक ज्ञात हुआ कि मामा, मामी, नानी यानी समस्त लोग अपना मकान इलाहाबाद का घर बेचकर हमेशा के लिए कोलकाता जा रहे हैं । वह ननिहाल जिसके साथ न जाने बचपन की कितनी असँख्य यादें जुड़ी हुई हैं, वह घर अब नहीं रहेगा ।
वह ननिहाल हमारे लिए एक घर से कहीं अधिक था औऱ वहां मात्र जाने के नाम से ही मन आनंदित हो उठता था । बहुत बड़ा कारण था वह ननिहाल की छत और दूसरा कारण था हम उम्र ममेरा भाई । हम दोनों भाई जब भी माताजी के साथ ननिहाल जाते थे वह छत हमारे क्रीड़ा का अखाड़ा होता था ।
हमारा ननिहाल 1940 के दशक का था यानि वयोवृद्ध अवस्था में था औऱ बनावट भी वैसे ही थी । छत काफ़ी बड़ा तो था,परन्तु एक साथ न होकर अलग-अलग भाग में विभाजित था । उस छत में हमलोग कौन सा खेल नहीं खेले ।
क्रिकेट,फुटबाल, ऊंच-नीच,कैचम-कैच कुछ भी बाक़ी नहीं था । मुझे याद है कि कैसे मामाजी बीच वाले छत के कोनों के दीवारों पर डंडा-पटरा रखकर टेंट बना देते थे और हम उस टेंट के अंदर बर्तन, खाना, चादर रखकर घर-घर खेलते थे । नानीजी हमको पैसा देती थी और हम दौड़कर बगल वाली परचन की दुकान जिसको हम लोग घूरे मामा की दुकान कहते थे । वहां से दालमोठ, लेमिन चूस टॉफी लेकर आते थे जो हमारे उस टेंट के नीचे स्थापित काल्पनिक घर का रसद हुआ करता था । बच्चों में कल्पना शक्ति कितनी प्रबल होती है, यह साबित होता है-हमारे खेल से, कियूंकि उस खरीदे गए दालमोठ को बकायदा बर्तनों में यह कढ़ाई में डालकर हम अपने कल्पना में पकाते थे औऱ उसको विभिन्न वयंजन समझते हुए बड़े चाव से खाते थे ।
हमारी उस धमाचौकड़ी टीम के सदस्य हुआ करते थे, मेरे अलावा मेरा ममेरा भाई, मौसेरा भाई, मौसेरी बहन तथा मेरा छोटा भाई.
मेरा छोटा भाई उस वक़्त बहुत ही छोटा था, शायद 3-4 वर्ष का । फ़िर भी बड़े उत्साह के साथ हम लोगों का साथ का साथ देते थे । गर्मी की छुट्टियों में जब भी हम ननिहाल रहने जाते थे तो अमूमन रात को हमसब छत पर ही सोते थे । छत पर क्या सोते थे, आधी रात तक हंसी-ठिठोली होती थी, हर बात पर खीं-कीं कर हंसते थे औऱ नानी की डांट पड़ते ही चुपचाप सोने का नाटक करते थे.वह दिन मुझे याद है जब हम छत पर पानी डालने के नाम पर एक दूसरे को भीगो देते थे और अंधेरा होने पर या पावर कट होने पर छत पर रखे हुए तख़्त पर लेटकर तारों को देखते थे ।
उस छत में हम न जाने कितनी बार बरसात में भीगें हैं । उस छत में हम न जाने कितनी बार गर्मी की भरी दुपहरी में क्रिकेट खेले हैं. उस छत पर न जाने कितनी बार दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड में अलाव जलाकर हाथ-पांव सेकें गये हैं । वह छत हमारे जीवन का,विशेषकर मेरे जीवन का इतना अभिन्न अंग हो चुका था कि हमारी शादी के दौरान कई कार्यक्रम उस छत पर सम्पन्न हुए. यहां तक कि हमारी बेटी की
‘अन्नप्राशन’ अथवा ‘खीर चटाई’ रस्म भी उसी छत में सम्पन्न हुई.
आज़ उस घर को आखिरी बार देखने एवं सबसे मिलने जब सपरिवार ननिहाल गये तो उस घर में घुसते ही जैसे पुरानी असंख्य यादें जीवित हो उठी. सीढ़ी से चढ़कर जैसे ही छत में क़दम रखा तो जैसे उस छत का सभी कोना,वहां पर बिताये एक-एक क्षण को याद दिलाने लगा । हमारी ढाई वर्षीय कन्या भी जब फुदक-फुदक कर पूरे छत में खेलने लगी तो लगा जैसे कि मैं अपना बचपन देख रहा हूं औऱ इतिहास अपने-आप को दोहरा रहा है । परंतु शायद अब देर हो चुकी है जिस छत पर कभी हमारा राज़ हुआ करता था,वह अब किसी और का होगा और हमारे लिए उस अबोध कन्या को समझाना मुश्किल हो जाएगा कि हम घर में क्यों नहीं जा रहे हैं कियूंकि वह घर,वह छत उसे भी उतना ही प्रिय है, जितना की हमें है ।
परिवर्तन ही संसार का नियम है औऱ परिवर्तन ही शाश्वत है और यह भी सत्य है कि मनुष्य घर से नहीं बनता बल्कि घर मनुष्यों से बनता है फ़िर भी यह मानने में समय लगेगा कि वह प्यारा ननिहाल, वह प्यारा छत, फ़िर कभी भी शायद देखने को न मिले.
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