लघु कथा, दिवाली की सफाई- महेश राजा, महासुमन्द-छत्तीसगढ़
दिपावली का त्यौहार नजदीक था।बेटा देश से आया हुआ था। घर में सब खुश थे।
घर के मुखिया साहित्य से जुडे थे।घर में एक पूरा कमरा उनकी पुरानी किताबों, पत्र पत्रिकाओं से लदा पड़ा था।
बेटा सफाई पसँद था।मांँ से बोला,-“यह सब क्या भर कर रखा है।चलो साफसफाई करते है।पुरानी पुस्तकों को रद्दी में दे देते है।”
मां ने कहा,-“तुम्हारे पापा मना करते है।”
वे बाजू के कमरे से यह सब सुन रहे थे।पिछले बतीस वर्ष के साहित्य सफर की यादें जुडी थी,इन किताबों से।क ई छपी ,अनछपी रचनाएं,पत्र,डायरी और ढेर सारी यादें।हालांकि बहुत सारी किताबों के पन्ने समय के साथ पीले पड़ चुके थे।पर,इन सबके साथ उनकी भावनाएं जुडी थी।
बेटा इस बार जिद में था।वे थके स्वर में पत्नी से बोले,-“ठीक है,बड़े दिनों बाद आया है बेटा जैसा कहता है करो।मैं मन्दिर जा रहा हूं।देर से आऊँगा।तब तक तुम लोग सफाई निपटा दो।”
वे जानते थे इतने दिनों से सम्भाली हुई उनकी धरोहर आज घर से चली जायेगी।कितने दिनों का साथ था।पुरानी यादें लिपटी हुई थी।वे मन ही मन रो रहे थे।थके कदमों से मंदिर की तरफ चल पडे।
सोच रहे थे,अब शायद सब कुछ नये सिरे से शुरु करना होगा।क्या कर पायेंगे वे ऐसा….?
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