लघु कथा, अंधेरा उजाला- महेश राजा, महासुमन्द-छत्तीसगढ़
सडक के इस छोर से उस छोर तक रोशनी ही रोशनी झगमगा रही थी।रंगबिरंगी आतिशबाजी यां हो रही थी।लोग नये नये कपडों में सजे धजे ईधर से उधर आ जा रहे थे।
कानू चुपचाप एक अंधेरे कोने में खडा था।उसके भीतर दूर तलक अंधेरा ही अंधेरा छाया हुआ था।
शाम घिरती चली जा रही थी।वह चाह कर भी अपने घर की तरफ लौट नहीं पा रहा था।घर की याद आते ही उसे रोना आ रहा था।
सेठजी ने आज उसे हिसाब लेने के लिये बुलाया था।वह बडा खुश हो कर घर से निकला था।उसने तय किया था कि बेटे के लिये पटाखे और सस्ती सी मिठाई खरीदेगा।परंतु सेठजी की हवेली पर पहुंच कर उसके सारे अरमानों पर पानी फिर गया।चौकीदार ने बताया,कि सेठजी सपरिवार दीपावली मनाने शहर चले गये है।
लडखडाते कदमों से वह हवेली से बाहर निकला।उसने पीछे मुडकर खाली निगाहों से हवेली की तरफ देखा,जिसके बुर्ज पर ढेर सारे दिये जगमगा रहे थे।
फिर वह एक जगह खडे हो गये।आंखोँ में प्रतीक्षा रत बेटे का मासूम चेहरा तैर आया।उसकी आंखे नम हो गयी।
त्यौहार में कोई उधार रूपये भी नहीं देगा,वह जानता था।एक जगह बैठ कर वह रात होने का ईंतजार करने लगा।ताकि बेटा थक रोकर सो जाये।
गली में बच्चे पटाखे चला रहे थे।
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