लघु कथा, दर्द की लकीरें- महेश राजा, महासमुंद-छत्तीसगढ़
दीपावली की शाम।पूजा आराधना सम्पन्न हो गयी थी।वे सपत्नीक बच्चों की बातें कर रहे थे।
तभी पाठकजी पहुंचे।कलीग थे ।रिटायर हो गये थे।एक बेटा बैंक में था।बडा व्यापार करता था।घर से अलग रहता था।
चाय,नाश्ते के दौरान पाठकजी ने घर की गृहिणी से पूछा-“,इस धनतेरस आपने क्या खरीदी की?”
गृहिणी उत्साह से बता रही थी।एक बेटा और बेटी है।दोनों के लिये ही नयी घडी और एक फ्रीज खरीदा है।दोनों के नाम से कुछ बचत भी की है,आगे दो प्लाट दोनों के नाम से खरीदने है।भविष्य में दोनों को एक एक मकान देना है।”
पाठक जी ने ध्यान से सबकुछ सुना और बडे ही दुःखी स्वर में कहा,-“एक छोटा सा मकान अपने लिये भी रखना,जाने कब….।
उनके चेहरे पर दर्द की अनगिनत लकीरें थी,जो साफ पढी जा सकती थी।
वातावरण को हल्का करने मेजबान ने कहा,-“अरे,पाठक जी,गुझिया तो आपने चखी ही नहीं।भ ई ,हमारी श्रीमति गुझिया एक्सपर्ट है।”
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