कहानी, चुनी हुई ज़िंदगी- संतोष झांझी, भिलाई-छत्तीसगढ़
उसे ऐसा क्यों लग रहा था कि कोई उसे घूर रहा है।उसने गाते गाते रिकार्डिंग रूम के शीशे के उसपार खड़े तीनों लोगों पर नजर डाली, उसमें से एक आँखें झुकाये रेकार्डर पर अंगुली रखे ध्यान मग्न था, दूसरा घड़ी पर नजरें जमाये था, तीसरा उनसे कुछ बात करनें मे व्यस्त था ,शीशे के उस तरफ उसके हिलते होंठ दिखाई दे रहे थे फिर कौन घूर रहा था उसे ?
इन्सान कहीं भी हो, कितना भी व्यस्त हो,अगर कोई उसे घूर रहा होता है तो उसे एहसास हो जाता है। आँखों मे एक चुम्बकिय शक्ति होती है शायद।
उसने चोर निगाहों से अपनें आसपास बैठे पाँचों म्यूजिशियंश पर नजर डाली। जोसफ आर्गन बजानें मे मगन था, मजूमदार गर्दन उठाये अधखुली आँखों से तबला बजाने मे व्यस्त था, बिशप बाँसुरी बजानें मे डूबा था, गोवर्धन ढोलक बजाते समाने शीशे के उसपार देख रहा था। विश्वनाथ की निगाहें हारमोनियम पर रखे पेपर के संकेतों पर थी।फिर,,,,, फिर कौन था ? कौन घूर रहा था उसे ? ऊंह,,,,उसमें लापरवाही से सर झटका,,,,, होगा कोई,,,,
उसनें अपनें डायरी ,पेन,पेपर वगैरह समेटे और रेकार्डिंग रूम से बाहर आगई। लड़के अपने अपनें इन्स्ट्रूमेन्ट संभालने मे लगे थे। वह गलियारे से गुजरती हुई आफिस में अपना आज का चैक लेने चली गई, चैक तैयार ही था, तुरन्त मिल गया । चैक पर्स मे रखनें के बाद पर्स की चेन बंद करते करते जब वह फिर गलियारे में पहुची तो वही युवक दिखलाई दिया जो थोड़ी देर पहले रिकार्डिंग रूम में खड़ा बातें कर रहा था। सांवला सलोना बड़ी बड़ी आँखों वाला युवक एक पल के लिये ठिठका, जैसे विश करना या कुछ कहना चाहता हो पर फिर वह आगे बढ गया। शायद उसने अर्चना के चेहरे का अपरिचित भाव पढ लिया था।अनजान लोगों से अर्चना को बात करना पसंद नहीं था। युवक की बड़ी बड़ी आँखें उसके जेहन में कई बार उभरी,,,,,क्या वही उसे घूर रहा था ?
छै माह बाद वह फिर रिकार्डिंग के लिये रेडियो स्टेशन पहुंची। रिकार्डिंग रूम खाली होने मे कुछ समय था। वहां किसी वार्ता की रेकार्डिंग चल रही थी।
वह वेटिंग रूम में अपनें म्यूजिशियंश के साथ बैठी थी,तभी उसे फिर वही युवक नजर आया। उसने उसे वेटिंग रूम मे बैठे देख लिया था। उसमें सोच लिया आज अगर वह रेकार्डिंग रूम में आया तो वह उसे छुपी नजरों से अवश्य वाॅच करेगी। इस बीच वह सामने से दो तीन बार गुजरा, उड़ती उड़ती नजर उसने हरबार वेटिंग रूम की तरफ अर्चना पर भी डाली। हाथो में पेपर लिये वह कुछ व्यस्त नजर आया ।
वापसी में लड़के आपस में बात कर रहे थे –‘ मस्त आदमी है कृष्ण धर जी ‘
मजूमदार बोला–‘क्या लक है यार,। विश्वनाथ बोला–‘ अपना लक वो खुद बनाते हैं, कितने इन्टैलिजेन्ट है। एक के बाद एक ऐग्जाम देते जा रहे हैं और प्रमोशन मिलती जा रही है।’
अर्चना सुन रही थी, आखिर मे पूछ ही लिया –‘किसकी बात कर रहे हो तुम लोग ?’
जोसफ बोला–‘वही मैडम काली शर्ट वाला,, बड़ी बड़ी आँखों वाला लड़का । पाँच साल में असिस्टेंट स्टेशन डायरेक्टर हो गया।
अर्चना बोली–‘असिस्टेंट डायरेक्टर तो कोई कृष्ण धर दीवान है न ?’
–‘ उसी की बात कर रहे हैं हमलोग ‘ मजूमदार बोला। फस्ट फ्लोर में एक आफिस के सामने
अर्चना नें इस नाम की नेम प्लेट लगी देखी थी पर उसे नहीं पता था यह उसी काली शर्ट वाले लड़के का नाम है।
साल में दो तीन बार वह रेकार्डिंग के लिये रेडियो स्टेशन जाती रही। कृष्ण धर से भी अक्सर सामना होता रहा पर न तो आमने-सामने कभी परिचय हुआ न ही कभी बात चीत हुई पर हर बार उससे सामना होते ही पता नहीं क्यों ऐसा लगता जैसे एक पल के लिये सब कुछ थम सा गया हो, जैसे नदी बहते बहते रूक गई हो,, आसमान में उड़ते उड़ते पक्षियों के पंख एक पल के लिये जैसे उड़ान भरना भूल गये हों ,,, और दिल,,, दिल की धड़कन भी जैसे एक पल को थम सी जाती,,,।
कभी कभी अचानक उसका दिखाई देना कुछ वर्षों के लिये बंद हो जाता ,, पता चलता उसका ट्रांसफर हो गया है। तब रेकार्डिंग के लिये जाते हमेशा ऐसा लगता जैसे वह यहीं आसपास है,,,,उसकी आँखें कहीं से उसे घूर रही हैं ।
जिन्दगी अपनी रफ्तार से दौड़ती रही। समय की रफ्तार तो मानों जिन्दगी की रफ्तार से भी अधिक तेज थी। जिन्दगी से अर्चना ने बहुत कुछ पाया और बहुत कुछ पाकर खोया । नाम, शोहरत, घर, परिवार , पति का प्यार, बच्चे,,,,,, फिर एक एक कर सब खोता चला गया,, पति का वियोग, बच्चों से अलगाव,,,,,, बचा रहा जीवन में बस सम्मान, यश और आवाज,, वह अपनें टूटे हुए दिल के टुकड़े समेटे हुए अक्सर उदास मन लिये सोचती रहती और कितने दिन साथ देगी यह आवाज ? एक दिन तो सब कुछ खोना ही है। आँखों की रोशनी, कान, हाथ, पाँव और एक दिन यह आवाज भी खो जायेगी। जिस दिन यह आवाज खो गई, धीरे धीरे यश, सम्मान, और इर्द गिर्द नजर आनें वाली लोगों की भीड़ भी छंट जाएगी फिर और घना हो जायेगा ये अकेलापन,और उस अकेलेपन मे ही एक दिन चुपचाप सब खतम हो जायेगा। लोगों को भी कई दिन बाद खबर होगी,, कि अर्चना,,,,,,
आने वाले दिनों की कल्पना कर वह काँप उठती।
आजकल उसका कहीं आने जानें का मन नहीं होता,, मन मारकर जब वह तैयार होकर निकलती है, दस लोगों से मेल मुलाकात होती है, तब उसे अच्छा ही लगता है। अपने प्रति लोगों का सम्मान देख उसे अपना कुछ अस्तित्व नजर आनें लगता है , पर घर आकर वह फिर उन्हीं अन्धेरो मे डूबने उतारने लगती है।
मुम्बई में बहुत बड़ा सेमिनार था,आने जानें रहनें खाने का सारा इंतजाम संस्था ने किया था। दो दिन के लंबे कार्यक्रम के अंत मे दूरदर्शन के कोई बहुत बड़े आफीसर शायद एम.डी. का जो शायद इस कार्यक्रम के अध्यक्ष थे, बड़े ताम-झाम लाव लश्कर के साथ आगमन हुआ। उन्हें ससम्मान माइक पर आशीर्वचन के लिये निमंत्रित किया गया । वह उनकी गुरूगंभीर आवाज को ध्यान पूर्वक सुन रही थी। यह,,, आवाज,,,
–‘आदरणीया अर्चना जी की आवाज का, उनकी कला का, मै पिछले चालीस वर्षों से मूक प्रशंसक रहा हूँ जब वो लखनऊ आकाशवाणी से सुगम संगीत गाती थीं ।’
अब अर्चना नें गर्दन उठाकर ध्यान से एम.डी. साहब की ओर देखा–‘ कृष्ण धर ?’
डिनर के समय अर्चना भीड़ से अलग खड़ी थी। किसी ने नैपकिन सहित प्लेट उसकी तरफ बढाई। उसने संकुचित होकर नजरें उपर उठाई । कृष्ण धर थे–‘ इतनें वर्षों बाद भी आप वैसी ही हैं ‘
अर्चना ने धन्यवाद कहकर प्लेट ले ली –‘ कैसी ?’
–‘ जैसी तीस वर्ष पहले संकोची थी। आगे बढकर खुद विश करनें या परिचय करने में आप हमेशा से ही कतराती रहीं ।’
–‘ हाँ, कई लोग इसी वजह से मुझे घमंडी भी समझ बैठते हैं पर ऐसा नहीं हैं,,,,,, आपनें सही समझा,,, मै इस मामले में जरा संकोची ही हूँ ।
—‘आप तो शायद आज भी बात न करतीं अगर मै ही आगे बढकर पहल न करता,,,।’कृष्ण धर हँसे,,
—‘शायद’ वह संकुचित हो गई । सोचने लगी क्या कहे,,,,?
इस बीच उनसे बात करनें लोग लगातार आते रहे,, जिन्हें उन्होंने हाथ के इशारे से रोक दिया —-‘ डिनर के बाद मिलते हैं यार,,
उनका सारा ध्यान अर्चना की तरफ था।
–‘ हाँ ,और बताइये आप कैसी हैं ?
–‘अब और कैसी हो सकती हूँ । बस, सब समापन की ओर है ‘ अर्चना ने उदासी से कहा।
–‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता आपको देखकर, आप अभी भी वैसी की वैसी यंग और खुबसूरत हैं ।’
–‘ साठ साल की यंग ??’ वह मुस्कराई,
–‘देखिये मै आपसे दस साल छोटा हूँ पर मैं लग रहा हूं साठ साल का ,आप नहीं,, मुझे सब पता है, आपके साथ जो जो घटा है। मुझे जानकर बहुत ही दुख हुआ,,
–‘आप,, आप कैसे जानते हैं ??’ वह चकित थी ,,कृष्ण धर हंसा,
–‘ आपनें तो कभी हमपर नजर ही नही डाली। हम तो शुरू से ही आपकी आवाज के और आपके दीवाने रहे हैं ।’ अर्चना अकबका गई,,,
–‘ये,,, कैसी बातें कर रहें है आप ?’ वह अपने आसपास देखने लगी,।जैसे कोई सहारा ढूंढ रही हो।
—‘अब इस उम्र में पहुंच कर ही तो सच बोला जा सकता है। ट्रांसफर मेरा चाहे जहाँ हुआ हो। मै अपनें सूत्रों से आपके बारे में हर जानकारी रखता रहा हूँ । आपका अकेलापन,,,, आपकी दुश्वारियां,,,
–‘ बस अब चंद महीने और साल बचे हैं, वह भी निकल जायेंगे,,,उसने लंबी सांस लेकर कहा,,,
—-‘ सब से पहले तो आप अपनी निगेटिव सोच बदलिये ।आप खुद को साठ साल का प्रचारित कर रही हैं क्यों भई ? किसलिये ? आप यह कहना बंद करिये,,,,, अब से यंग और खुशमिजाज लोगों के बीच बैठिये ,,,,,,उनसे दोस्ती रखिये,,,, हंसिये हंसाइये ,,,,कृष्ण ने हाथ आगे बढाया।
—‘मैं हाजिर हूँ दोस्ती के लिये, अभी भी,,,, आज भी,,, चालीस साल पहले जो संकोचवश खोया आज नहीं खोना चाहता।”पता नहीं कब अर्चना का हाथ कृष्ण धर के हाथ मे चला गया। उसने देखा कृष्ण धर के सांवले सलोना चेहरे पर सफलता की चमक के साथ साथ एक निखार भी आ गया है। बदन पहले की अपेक्षा थोड़ा भर गया है। आँखें वैसी ही बड़ी बड़ी पर आत्म विश्वास से लवरेज हैं । इसीलिये तो तीस वर्ष बाद भी अर्चना ने उसे पहचानने में कोई भूल नहीं की। बस वह पहले से जरा बेतकल्लुफ नजर आया। कृष्ण के कहेनुसार यह उम्र के कारण था या फिर हो सकता है पद और सफलता इसका कारण हो।
अर्चना ने कृष्ण के हाथ से अपना हाथ अलग करना चाहा,पर कृष्ण ने इस तरह उसके हाथ को थाम रखा था कि उसे हाथ छुड़ाने के लिये एक तरह से अपना हाथ खींचना पड़ा —‘ अब चलूँगी,, साढे दस बजे ट्रेन है।’
—‘ आज मत जाओ प्लीज,, कल चली जाना, कितनी बातें बची हैं अभी।’कृष्ण की आवाज का प्रेमपूर्ण आग्रह लगभग गाड़गिड़ाहट मे बदल गया,—-‘तीस सालों के तीस घंटे ही दे दो मुझे।’
–‘रिजर्वेशन है, जाना ही होगा, सारी बातें समाप्त हैं, अब क्या बचा है ? अब तो केवल दोहराव है,,,,अपनें अधूरेपन से उबरने की कोशिश मात्र है,,, उसमें लंबी सांस लेकर कहा।
—‘ फिर वही बात, मेरी बातों पर गौर करना,। कुछ भी समाप्त नहीं हुआ है।शुरूआत तो कभी भी की जा सकती है। संपूर्ण होने की संभावनाएं अपने आसपास ही रहती हैं।’कृष्ण ने धीमी आवाज मे कहा,उसकी आवाज मे पता नहीं ऐसा क्या था कि एक पल को अर्चना का सारा अस्तित्व ही मानो विचलित हो उठा, दूसरे ही पल वह फिर स्थिर होकर बोली—‘ यह जो कुछ भी मुझ में है, वह मैने उत्पन्न नही किया, न ही वह एक दिन में मेरे भीतर निर्मित हुआ है। इस समाज, संस्कृति, और परंपराओं ने जो कुछ मेरे भीतर भरा है मैं उसी की नियति हूँ । किसी निश्चय पर पहुंचने के लिये दिल और दिमाग का एक साथ खडे रहना जरूरी है।
वह विदा लेकर चल दी। आज फिर इतने वर्षों बाद उसे लगा कोई उसे लगातार घूर रहा है। दो आँखे मानों उसकी पीठ में गाड़ी जा रहीं थी, जिसकी चुभन और गर्मी उसे अपनी पीठ से दिल मे उतरती महसूस हो रही थी। उसका दिल बार बार चाहा एक बार पलट कर देख ले, बीच मे गुजरे तीस वर्षो को भूलकर कृष्ण की खुली बाहों मे समा जाए, उसकी नशीली आँखों मे डूबकर उसके सीने पर सर रख दे,,पर वह बिना पलटें सीधी चलती रही। पलटकर वह अब कुछ भी देखना या तलाशना नही चाहती। अब तो वह जानती है उन आँखों को,,, ऐसा नहीं कि कृष्ण उसके अंतर से बिना कोई निशान छोड़े गुजर गया हो। वह सोचने लगी अगर जीवन एक पडाव है तो हमारी यात्रा एक ही समय में आगे और पीछे कैसे चलती है ? आज वह अपनें लिये चुनी गई जिन्दगी के अर्थों को समझ कर संतुष्ट है।
वह अपनें मान और मर्यादा में जकड़ी चुपचाप धीर कदमों से अकेली स्टेशन की ओर चलदी।
【 ●गीत,ग़ज़ल,कथाकारा,उपन्यासकार संतोष झांझी देश की सु-प्रसिद्ध मंचीय कवयित्री हैं
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