कहानी : संतोष झांझी
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अनुत्तरित प्रश्न
– संतोष झांझी
[ भिलाई छत्तीसगढ़ ]
मैं थकी थकी सी खिड़की के पास बैठ गई। तीन दिन हो गये थे घर
से निकले, गर्मी और थकावट से चूर हो चुकी थी। खिड़की से सर टिकाते
मैनें अपनें अटैची पर ही पांव टिका दिये। गर्म हवा के झोंके आ रहे थे,पर
खिड़की बंद करनें तबीयत नहीं हुई ।
लखनऊ से गाड़ी चली तो यह सोचकर मन आश्वस्त हो रहा था
कि बस चार घंटे बाद शाहजहांपुर,नहा धोकर थोड़ा आराम किया जा सकता
है। नींद आने की तो कोई उम्मीद ही नहीं थी ।पर्स खोलकर मैंने उसमें रखी
नींद की गोलियों को एक बार सहेजा।ये चार गोलियां के मैंने कल लखनऊ
से खरीदी थी पर सफर मे उसे खाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई।
मैं शाहजहांपुर एक कवि सम्मेलन में भाग लेने जा रही थी
अनिद्रा और थकान से चूर ,शायद अब तक हजारवीं बार मैनें यह सोचा कि अब
कवि-सम्मेलनों में जाना बंद कर दूंगी,पर मैं जानती थी मेरा यह सोचना सिर्फ
सोचना ही रह जायेगा। शोहरत और पैसा तो है ही, साथ ही घर की जिम्मेदारियां
मुझे अभी चार पांच वर्ष ऐसा नहीं करनें देगीं ।
–“आपके थर्मस में पानी होगा?” सामनें सीट पर बैठी दुबली पतली लड़की पूछ
रही थी।
–“बर्फ है उसमें,, स्टेशन से पानी लेकर मिला लो, तब पी पाओगी ”
उसके पापा स्टेशन के नल से उबलता सा हुआ पानी लेने चल दिये। मैंने खिड़की
से झांकता हुए स्टेशन का नाम देखने की कोशिश की ।छोटा सा गाँव का स्टेशन
बोर्ड पर ‘आँधी शाहाबाद’ लिखा था। मेरे मस्तिष्क को जैसे झटका लगा
“आँधी शाहाबाद ” ?? ललिता,,,, ललिता का हँसता मुस्कराया साँवला चेहरा मेरी
आँखों के सामनें नाच उठा। गाड़ी स्टेशन पर सिर्फ एक मिनट मे आगे बढ गई।
मैं जल्दी जल्दी प्लेटफार्म पर अपनी आँखें दौड़ा रही थी,, जैसे स्टेशन पर खड़ी और
बब अलग ही आकर्षण था। क्लास की अधिकतर लड़कियां रईस बिजनेसमेन,
मारवाड़ी और पंजाबियों की थी, ललिता एक साधारण परिवार की । यह बात कुछ
नकचढी रईस जादियो को पता चल गई, जब ललिता ने फीस लाना बंद कर दिया,
हम सब आफिस में फीस जमा करनें जाते,पर ललिता नही गई , तब पता चला
उसकी फीस माफ है पर ललिता के चेहरे पर मैने कभी कोई हीन भावना नही देखी।
तीसरी क्लास से आठवीं तक हम एक ही सैक्शन में पढ़ती रही।
पता नहीं कब हम दोनो मे इतनी दोस्ती हो गई,, शायद उसदिन,,,,,
—“ए मोनो क्या लिख रही है? प्रेयर की बैल हो गई चल।
उसमें मेरे हाथ से कापी छीन ली।कुछ देर देखकर बोली—“यह गीत किसी फिल्म का है?
—“नहीं मैने लिखा है “मै झेंप कर बोली।
—“तूने,, सच तूनें यह गीत लिखा है ? सच? ” वह खुशी से मुझसे लिपट गई।
—” हाँ,,, मैंने तो ऐसे बहुत सारे गीत लिखें हैं। ” हाल की तरफ जाते हुए उसने खुशी
में मेरा हाथ कसकर पकड रखा था,, वह मुझे मेरे निक नेम से ही बुलाती थी हमेशा।
—“मोनी,, तूं अपनें लिखे गीत गा सकती है?”
–” गाती हूँ पर अपनें लिखे तो कभी नहीं गाये।”
–” पागल,,,, तो फिर क्या करती है ?”
–“बस,,,लिखकर रख देती हूँ,,,
—“लिख कर रख देती हूँ,,,।” उसमें मुझे चिढ़ाया,,,, बोली मैं तेरे गीतों को गाऊंगी ।
—“तू,,,तूं कैसे गायेगी?
–“कैसे क्या ? जैसे गाते हैं उसकी धुन बनाकर,, अच्छा एक बात बता, तेरे पापा भी
तो कवि हैं न ?”
–“हाँ,, क्यो ?”
—“तूंने उन्हें कभी अपनों कविताएं दिखलाई हैं
—-“नहीं डर लगता है”
—“पागल कहीं की,, डर किस बात का ? तूं उन्हें दिखाना, वो अवश्य प्रसन्न होंगे।
गीतों की धुन बनाते बनाते हम दोनों को गाने का ऐसा शौक चढा कि सुबह स्कूल
पहुंचकर प्रेयर से पहले और दोपहर मे लंच मे हम दोनों स्कूल का हारमोनियम लेकर
कुछ न कुछ गाते रहते थे।और एक दिन हम दोनो ने तय किया, कि स्कूल की प्रेयर
की धुन बहुत पुरानी और घिसीपिटी हो गई है ,,क्यों न इसकी नई धुन बनाये,,। तीन
चार दिन की मेहनत के बाद हमें एक धुन जमी। हमदोनो ने उस धुन मे प्रार्थना गाने
का अभ्यास शुरू किया,, फिर तय किया कि अच्छी तरह प्रैक्टिस कर शनीवार को
स्कूल के हेड मास्टर शास्त्री जी को सुनायेंगे ।
दूसरे दिन फिर क्लास का दरवाजा बंदकर, हम दोनों उसी धुन मे प्रार्थना गाने का
अभ्यास कर रहे थे, हमारे क्लास की लड़कियां भी हमारे साथ गानें का प्रयास कर
रहीं थी, तभी दरवाजा धकेल कर शास्त्री जी अंदर आगये,,, हमारी सांस जैसे रूकने
लगी। अंगुलियां हारमोनियम पर कांप गई।
—“यह धुन कहाँ सीखी ? शास्त्री जी ने पूछा,,
–जी हमदोनों ने बनाई है,,,ललिता बोली
—” हूँ,,गाओ जरा,,, हमदोनों की तो जान ही निकल गई,,,हारमोनियम उल्टा सीधा
बजने लगा,,,
—“गाओ गाओ,, डरो नहीं,, बहुत अच्छी धुन बनी है,,
किसी तरह हमारे गले से फँसी फँसी आवाज में दो लाइन निकली,,, फिर तो गाड़ी
लाइन पर आगई।
—” बहुत अच्छा, आज अच्छी तरह प्रैक्टिस कर लो। अपनी क्लास की लड़कियों
भी सिखा दो। कल सुबह इसी धुन में प्रार्थना होगी,,
इतना कह कर शास्त्री जी चलो गये,, जब उनकी खड़ाऊं की आवाज आनी बंद
होगई,, तब हमें होश आया कि हमदोनों ने कितना बड़ा चमत्कार कर डाला।
तब हम दोनो छठवीं कक्षा में पढ़ती थी।
आठवीं कक्षा की छुट्टियों में ललिता गाँव चली गई। जब वहाँ से लौटी तो उसकी
माँग में सिन्दूर भरा था,, पर वह एकदम शान्त थी। मुझे बुरा लगा—“तेरी शादी थी,
बताया भी नहीं तुमने? ”
–” मुझे ही किसने बताया था कि मेरी शादी है ?”
–“क्या ,,
,, –“मतलब कुछ नही,, हमारे यहाँ ऐसा ही होता है। दादी ने बवाल मचा रखा था
शादी के लिये।पिताजी कबतक उनसे टकराते ?
–” कैसा है वो ।”
–“क्या पता ”
–“तूंने देखा नही क्या ।”
–“अभी गौना नही हुआ , परीक्षा के बाद होगा ।
तो
त –“तेरी पढाई का क्या होगा,?
–” दादी कहती है नौकरी थोड़े ही करनी है,,।
—“तूं अपनें पिताजी से बात कर,,,तूं पढाई में कितनी अच्छी है। म्यूजिक में भी
तेरे कितने अच्छे नंबर आते है। तू खुद कहेगी तो मना नहीं करेगें। वैसे तेरी तो फीस
भी माफ है।
–” इसीलिये आठवीं पास कर लूंगी ”
–“आज जरूर बात करना अपनें पापा से आग पढनें के लिये,,
–“कोई फायदा नही,,,,,
पूरा साल वो गंभीर बनी रही,, ,, हां हारमोनियम लेकर जरूर हम कभी कभी बैठ
जाते । वो अक्सर “ऐ मेरे दिल कहीं और चल गम की दुनियाँ से दिल भर गया”
बडी उदास स्वर में गाती।प्रायः हर दूसरे तीसरे दिन वह स्कूल के नीचे लगे लैटबाक्स
में एक लिफ़ाफ़ा डाल देती। मैने एकाध बार पूछा —” क्या जीजाजी को पत्र लिखा
है ? उसमें इन्कार कर दिया,, पर किसे लिखा यह भी नहीं बताया। मैनें भी फिर
अधिक नहीं पूछा,,,,पर इसका राज कई सालों बाद खुला,,
आठवीं का रजल्ट सुने बिना ही ललिता अपने गाँव चली गई। उसका
गौना होने वाला था। जाते समय अपने ससुराल आँझी शाहाबाद का पता दे गई थी
वह,,, पर उसने वहाँ जाकर कभी पत्र नहीं लिखा और न ही मेरे किसी पत्र का जवाब
दिया,, मैंने भी फिर पत्र लिखने बंद कर दिये। पर उसकी याद हमेशा आती रहीं और
आगे की पढाई और लेखन मे व्यस्त हो गई,,,
मेरे मामा मुझसे सात साल बडे अवश्य है पर गाँव से आकर मेरे साथ
मेरे ही स्कूल मे पढ़ते रहे। इसीलिए मामा भांजी के रिश्ते के अलावा हममें एक दोस्ती
जैसी है।एक दिन उनका कोई दोस्त उनके साथ घर आया। चाय पहुंचाने गई तो वह
चौक गया,, बोला —“सुनिए , आप बाँधाघाट स्कूल में पढ़ती थी,,
–“जी ,,,क्यो ,,,,
—“वहाँ आपके साथ ललिता नाम की एक लडकी—–
—-“हाँ,,, हाँ,,, पढ़ती थी,,आप उसे जानते है ,,,, कहाँ है ? कैसी है वो,,,??
एक सांस में मैने उससे कई प्रश्न पूछ डाले।उसका सर झुक गया। मैने फिर पूछा
—“आप उसके,,,,?
–” मैं पंकज हूँ,,, ललिता ने बताया होगा आपको,,?
—“पंकज,,? नहीं तो ,,मैने तो उसके मुँह से कभी यह नाम नहीं सुना ।”मैं हैरानी से
उसका मुँह ताक रही थी।
—“यह कैसे हो सकता है? मुझे वो आपके बारे में अकसर बताती थी। आप कविताएं
कहानी बगैरह लिखती हैं न ?
—” हाँ,,हाँ,,पर,,,,”
—” फिर उसने आपसे मेरे विषय में क्यों छुपाया ? मुझे भी हैरानी है ।तब तो शायद
आप यह भी नहीं जानती कि वह हमारे ही मुहल्ले मे रहती थी,, मैं यहाँ एक स्कूल
में म्यूजिक टीचर हूँ। उसे ऐसे ही शौकिया गाना भी सिखाता था।
—” उसने तो मुझे यह भी कभी नही बताया कि वह गाना सीखती है।”
—” ताज्जुब है,,,उसके तो पत्रों में भी आधे से अधिक आपकी बातें ही भरी होती थी।
मैं चौकी—” आपको उसके पत्र आते हैं क्या ? मेरे तो किसी पत्र का उसने उत्तर नहीं दिया।”
—” पहले पत्र आते थे जब वह यहाँ थी। गाँव से जब वह शादी के बाद आई तो उसने मिलनें
की जगह पत्र ही लिखकर बताया था कि अब गाना सिखाने मत आना । उसके बाद वह
जितने दिन यहाँ रही हर बात पत्र लिखकर कही कभी मिली नहीँ,,,, वहाँ जाकर तो जैसे
भूल ही गई ।”
मुझे उसकी शादी के बाद की उदासी याद आई । वो लिफाफे भी याद आये जो वह हर
तीसरे चौथे दिन पोस्ट किया करती थी।
इन बातों को छब्बीस सत्ताइस साल गुजर चुके हैं ।घर गृहस्थी, लेखन, शोहरत और
जिन्दगी के खट्टे मीठे दिन गुजारते हुए भी मैं अपने बचपन की कुछ खास सुखद यादों
में ललिता को भी सहेजी रही हूँ।
छै सात वर्ष पहले कलकत्ता गई थी, कवि सम्मेलन के लिये ही।पेपरों
में नाम पढकर पंकज मिलनें आया था।कनपटी के बाल सफेद हो चुके थे। चश्मा चढाये
दाढ़ी बढाये पंकज को देखकर एकबार तो मै पहचान ही नहीं पाई।उसी से पता चला
ललिता फिर कभी मायके नहीं आई। उसके पिता भी पुलिस की नौकरी से रिटायर्ड होकर
गाँव लौट गये थे।
बहुत झिझकते हुए उसने धीरे से कहा–” आप तो पूरा हिन्दुस्तान घूम
रही हैं,,, कभी उस तरफ जाना नहीं हुआ ?”
–“किस तरफ,,?
— “ललिता के गाँव की ओर । कभी उसतरफ जाना हो तो अवश्य मिलना,,, बस एक
प्रश्न मेरी तरफ से पूछना कि आखिर मेरा कुसूर क्या था ? मै अवसर ही तलाशता रहा ।
बस टैक्सी में बैठते समय उसने जिन नजरों से मुझे देखा,,वह नजरें मैं आज तक नहीं
भूल पाया । ऐसी शिकायती नजरें थी वो कि मैं आजतक अपनें को किसी अनजाने
अपराध से घिरा हुआ महसूस करता हूँ,,,, आखिर क्या था मेरा अपराध ?
बेचारा पंकज,,, इसी अपराध बोध ने उसे घर भी नही बसाने दिया।
एकाकी तिल तिल कर सुलग रहा था वो उस प्रथम प्रेम की आग मे ।
और आज वह आँझी शाहाबाद मेरी नजरों के सामनें है । मुझे तो यह पता ही नहीं था
कि लखनऊ से शाहजहांपुर जाते हुए ललिता का यह गाँव भी राह में पड़ेगा ।मैं असमंजस
मे थी,,अगर मै गई तो छब्बीस वर्ष बाद क्या ललिता यहाँ होगी ? क्या वह मुझे पहचानेगी ?
बाकी उसके घर के लोग कैसे होंगे ? मैं अकेली इस अनजान स्टेशन पर उतरू या नहीं,,
मैं अकेली अनजान स्टेशनों पर जाती अवश्य हूँ पर वहाँ आयोजक और स्वागत कर्ता
मौजूद रहते है।
पर्स से ऐड्रेस वाली छोटी सी डायरी निकारकर, मैने ललिता का पता ढूंढ़ने की असफल
कोशिश की। छोटा सा गाँव है कोई भी बता देगा ।शाहजहांपुर पहुंचकर मैंने सुबह सब से
पहले जानें वाली ट्रेन की जानकारी ली,,,
सुबह कविसम्मेलन समाप्त होते ही,, मैने किसी की एक नहीं सुनी और सामान उठा स्टेशन
चल दी। सोचा साढे छै बजे वाली ट्रेन से ललिता के गाँव जाऊंगी,,और अगर ललिता उस गाँव
में न हुई तो तुरन्त दूसरी ट्रेन से लखनऊ चल दूंगी,,, वहाँ से मुझे फिर दिल्ली होते हुए अपने
घर रायपुर लौटना था ।
उतरने का फैसला कर लिया था पर मन बेचैन था,, कैसी होगी ललिता ?
अपने आप से तुलना करके सोचा, इन छब्बीस सालों में मुझसा उसका बदन भी भर गया
होगा तो ऊँचाई के कारण खूब जँचती होगी,, हो सकता है कुछ स्थूल हो गई हो ? गाँव की
जमीदारिन साहिबा या पटवारिन जी बन, सोने चाँदी के गहनों से लदी रौताइनों पर हुकुम
चलाती कैसी लगती होगी ललिता ?उसका गाने का शौक, इस गाँव में शायद बन्ना बन्नी या
सोहर गाने तक रह गया होगा। कैसा लगता होगा ललिता का पति ?रोबीले से रोबीले पति
पर भी हावी हो जाने वाला व्यक्तित्व था ललिता का। बच्चे ,,? शायद मेरी तरह एकाध बच्चे
का ब्याह भी कर दिया हो। पता नही पंकज की उसे याद भी होगी या नहीं।अच्छी तरह कान
खीचूंगी उसके।मुझसे इतनी बड़ी बात छुपाई ? पंकज का प्रश्न भी उसके परिवार से आँख
बचाकर उससे पूछना है फिर पंकज को पत्र लिखूंगी, बेचारा,,,,,
ट्रेन झटके से रूकी , सामने स्टेशन था, मेरा दिल धड़क उठा, धड़कते
मन से नीचे उतरी। सुबह के नौ बज रहे थे पर तेज धूप और गर्मी मे गला सूख रहा था। कुली
कोई नजर नही आया, स्टेशन के बाहर एक गरीब सा बारह तेरह साल का लड़का नजर आया
उसे अटैची थमा कर मै बैग संभाल कर पैदल ही चलदी। छोटा सा गाँव ,आधा घंटा भटकते
पूछते मै रामेश्वर सिंह के दरवाजे के सामनें खड़ी थी सामने दरवाजा और अंदर कच्चा बड़ा
सा अहाते, एक तरफ ढोर डंगर बंधे थे, एक औरत झुककर चारा मिला रही थी। लड़के ने
आवाज दी—“ई रमेसर सिंह के घर बा ?ई मेमसाहब स्टेशन से अइलेबा।
लिथड़े हाथो से जरा सा घूंघट सर का कर औरत थोड़ा पलटी फिर उसने किसी को आवाज दी
—-“ए बचाव, तनि देख तो कवन है, पूछ तो का काम बा ?”
नंगे बदन सिर्फ लुंगी पहने एक अठारह उन्नीस साल का किशोर बाहर आया,, और मुझे खड़ी
देख हड्बड़ा गया—“कौन को चाहती हैं आप ?
—” रामेश्वर जी का घर यही है ?”
—“जी यही है,,, वह मेरा निरीक्षण करते हुए बोला।
—” रामेश्वर जी की पत्नी ललिता कलकत्ता में मेरी क्लासमेट थी ।मै उससे,,,,
वह मुझे सर से लेकर पांव तक देखते हुए बीच मे ही बोल उठा—“तनि ठहरिये हम पूछते हैं।
वो औरत आधे घूंघट में खड़ी हमे देख रही थी। लड़के ने उस औरत से जाकर पता नहीं
क्या कहा,, वह भी वहीं पडी बाल्टी मे जल्दी जल्दी अपने हाथ वोते हुए पता नहीं उसे क्या
कहती रही,, फिर आँचल से हाथ पोछते हुए मेरे पास आकर सम्मान से बोली—आइये,आइये
अंदर आ जाइये,,।
मैं असमंजस और झिझक में डूबी उसके साथ चल दी,,,तुरन्त कुएँ का ठंडा पानी और फिर
चाय आ गई,,,,,, मैने चौथी बार फिर दुहराया,,
—-“ललिता कहाँ है ?” क्या वो यहां नहीं रहती ?”
मैने बताया कि मैं यहाँ एक कविसम्मेलन मे भाग लेने आई थी,,
—” आपतो कविता शुरू से ही लिखती थी,, ललिता बताई रही।
—“बताई रही का क्या मतलब ? क्या अब वो यहां नहीं रहती?
—“वो,,, वो तो अब कहीं भी नहीं रहती,,,,,मर गई,,।
—” क्या ?,, मेरे मुंह से चीख निकल गई। उसका घूंघट से आधा ढका चेहरा झुक गया ।
—“कब कब मरी? मैने सामान्य होने की कोशिश करते हुए पूछा।
—” वर्षो गुजर गये,, याद नही कब मरी,,उसने उसी तरह सर झुकाये जवाब दिया।
—” उसका पति ? उसके बच्चे ?
–“एक लड़की थी उसकी शादी हो गई,,, पति की तो शुरू से एक रखेल थी। वहीं रहता है।
–“आप,,,आप उसकी ?
—” मै उसकी जेठानी हू। आप तो जरा नहीं बदली ,, वैसी की वैसी है,,,,
मैं चौंकी ,,, आपनें मुझे कब देखा ?
उसने लंबी सांस लेकर सर झुका लिया—-“ललिता के पास फोटो देखी थी आपकी,,आप
हमारे यहाँ कुछ दिन रहिये,,, ललिता न सही हम तो हैं,,,
—” मुश्किल है दो बजे वाली ट्रेन से जाना जरूरी है,,! मै अपनें आप को संभाल नहीं
पा रही थी । सामने बैठी मैली फटी साड़ी,उलझी उलझी सफेद लटों और गिनती के दाँतो
वाली महिला,,बराबर स्नेह छलकाती आँखो से मुझे ताक रही थी।
मेरे कटे बाल, बढे हुए चमकते नाखून, ऊँची हील की सैन्डिल और मेरी साड़ी को टाट
के पर्दे के पीछे से कई जोड़ी आँखें निहार रही थी। वो मेरे पति और बच्चो के बारे में
पूछने लगी। मैने बताया कि दो बेटियो का ब्याह कर दिया है,तो उसकी आँखें विस्फारित
हो गई। टाट के पर्दे के पीछे भी खुसरू पुसुर तेज हो गई।
—“आप तो कितनी छोटी लगती हैं,,, मै झेंप गई,,,
अंदर से एक बच्ची ने भोजन तैयार होने की सूचना दी,,खाने की एकदम इच्छा नही थी,,
पर सब के आग्रह को बहुत देर तक टाल नही सकी,,,, मन मार कर खाना ही पड़ा,,, समय
तेजी से सरकता जा रहा था।
—” ललिता की बेटी से मिलेंगी ?
–” कहाँ है?,,, यहीं है ?” मै खुशी से भर गई।
–” यहीं है,, अभी गौना नही हुआ,, सीला,, ए सीला ,,, तनिक आ तो,,उसने आवाज दी,,
धीरे धीरे कदम बढाती, एक लडकी मेरे सामनें आ खड़ी हुई और नमस्ते मे हाथ जोड़े।
मानो साक्षात ललिता ही सामने आ खड़ी हुई। चमकती आँखें, स्वस्थ सांवला शरीर,
एकदम ललिता, मै मंत्रमुग्ध सी खडी हो गई, ।उसके चेहरे को प्यार से छुआ,और सीने से
लगा लिया,,बहुत देर का रुका हुआ बाँध टूट गया। उसकी भी आँखें भीग गई।
—“बी ए तक पढी है,, और संगीत में भी बीए किया है”
मै खुशी और हैरत से देख रही थी,
—“लड़का लखनऊ आकाशवाणी मे है, गौना हो जाने के बाद आकाशवाणी में गायेगी
आॅडीशन हो गया है।
ललिता ने अपनी अधूरी जिन्दगी को जैसे पूरा जी लिया था अपनी बेटी के रूप में,,मेरे
मन का आक्रोश भड़क उठा,,—-“इतने भ्रस्ट व्यक्ति के साथ कितने दिन जी सकती थी
अभागी,,, पंकज अगर उसे मिला होता,,,,,आज तक बेचारा,,,
हड्बड़ा कर मै चुप हो गई,,यह क्या कह दिया मैने ? ललिता की ससुराल, उसकी जेठानी
के सामने,,
किशोर ने अब लुंगी पर कुर्ता भी डाल लिया था,,उसने मेरा अटैची और बैग उठा लिया
ललिता की जेठानी भी पैदल मेरे साथ स्टेशन चल दी,,शीला की मुट्ठी में मैने शगुन के
कुछ नोट दबायें, एकबार और उसे प्यार कर स्टेशन चल दी।
दूर से गाड़ी आती देख ललिता की जेठानी ने थरथराते खुरदुरे हाथो
से मेरे दोनों हाथ थाम लिये। कुछ देर उसके हाथों मे मेरे हाथ पसीजता रहे। गांधी आवाज
में बोली—” फिर,,,फिर आना,,,
किशोर ने दौड़ कर मेरा सामान अंदर रखकर सीट भी दिलवा दी,, उसकी सांस चढ़ी हुई थी,
मैंने उसकी मुट्ठी मे कुछ नोट दबायें,, पर उसका ध्यान उधर नहीँ था।जल्दी जल्दी सांस
खींचकर बोला—-“सुनिये मौसी आपसे एक बात कहना है ,,, उसने स्टेशन पर दूर खड़ी
घूंघट की ओट से ताकती ललिता की जेठानी की तरफ देखकर कहा,—-“आपकी सहेली
ललिता है ना ऊ बहुत झूठ बोली है,,
—“क्या,,,क्या,, मैं चकरा गई,,
—-” हा ,,मौसी,,ऊ झूठ बोलती है कि ऊ मर गई,, ऊ तो खड़ी है आपकी सहेली ललिता
हमरी माई,ऊ नईखे मरल,,, ओ ही हमरी माई है ललिता,,,,,
—“क्या,,,क्या मै चकरा गई,,
—” हाँ,,ऊ झूठ बोली है,,,,
मै जब तक कुछ समझू,, गाड़ी सरकी,, मै झपट कर दरवाजे तक दौड़ी,, किशोर नीचे
प्लेटफार्म पर कूद गया,,और हाथ हिलाने लगा,, गाड़ी ने झट स्पीड पकड़ली, पर मैं
हतप्रभ सी,,,दूर उस मैली फटी साड़ी के घूंघट मे उलझी सफेद लटों और टूटे दाँतो वाली
उस महिला में ललिता को ढूंढ रही थी,, जो मुझसे क्षण प्रतिक्षण दूर होती जा रही थी।
मेरे दिमाग मे पंकज का प्रश्न हथौड़े जैसा बज रहा था,,, जो मैं पूछ नहीं पाई थी,,,
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