रचना आसपास : दीप्ति श्रीवास्तव
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अपने भाग्य को सराहें
मैं अपने आप को अहोभाग्य मानती हूं कि दशरथ सुत रामचंद्र जी टेंट से निकल अपने राजभवन में विराजमान होंगे । जब सभी नक्षत्र अनुकूल होते हैं तो मनोरथ पूर्ण होता है । आज से हमारे दैदीप्यमान मान स्वामी को मंदिर में जाकर प्रणाम बिना विध्नबाधा के कर सकेंगे।
हम वह पीढ़ी है जिसने कोरोना जैसी महामारी में अपनों को खोने का दुख सहन किया है इस पीड़ा को दिल पर पत्थर रख सहा है।
आज हम वहीं है जो अपनी खुशियों का प्याला छलकाते अघा नहीं रहे हैं । हमारे इष्ट
रामजी को पुनः अपने जन्मस्थान पर विराजमान होंगे।
आज हमारा तन मन तृप्त है हम उस अलौकिक अहसास को महसूस कर रहे हैं जब त्रेता युग में अयोध्या वासियों को श्रीरामचंद्र जी के रावण से जीत कर और वनवास से लौटने पर अनुभव किया होगा । हमारी पीढ़ी धन्यवाद भाग्य है जो इन सब की साक्षी है। इस आंतरिक आनंद को शब्दों में गुथना बहुत मुश्किल है.
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हरी-भरी मूली
आज खेत से मूली उखाड़ते समय उसे वह मुहावरा याद आ गया
‘किस खेत की मूली हो ‘ भैया मुहावरे को मारो गोली मैं कह सकती हूं यह तो मेरे खेत की गोरी गोरी कमसिन हसीना जैसी ऊपर से हरा दुपट्टा नीचे पीली पाइपिंग लगी मन को एक नाजनीन हसीना की तरह अपनी ओर आकर्षित करती मूली हैं ।
ताजी मूली खाने में कितनी स्वादिष्ट मुंह को रसास्वादन कराती है वह भी खेत से तुंरत उखाड़ी गई हो ।
वह भी तो ताजी कमसिन चौदह वर्ष की थी दुनियादारी के हिसाब किताब से परे स्वप्नों की दुनिया में खोई। अंजाने में एक अधेड़ से की हवस का शिकार बन गई । क्या मालूम था यह वह भौंरा है जो फूलों का रसास्वादन कर उड़ जाता है । पिता के दोस्त ! जब घर में मालूम पड़ा बहुत देर हो चुकी थी ।मां ने परिवार समाज की परवाह न कर एफआईआर कर दी गई और कोर्ट से मंजूरी मिलते ही गर्भ को नष्ट कर दिया गया अपनी इस गलती की सजा वह आजीवन भुगतने तैयार थी परन्तु हिमालय की तरह अविचल खड़ी मां उसे हिम्मत बंधाती । परिस्थितियों ने उसे समय से पूर्व प्रौढ़ बनाया । कैसे लोग ताने देते , रिश्ते-नातों में आना जाना घरवालों का छुट गया । परिवार उसके साथ था जिसकी बदौलत वह नवजीवन पाई ।
जब कोर्ट से उस भंवरे को सजा हुई । तब अनेकों किस्से उस भंवरे के उड़ते हुए सबके सामने आने लगे । हिम्मत कोई नहीं कर पाया उस ताकतवर भौंरे के पूंछ में धागा बांधने की । धारा के विरुद्ध जाने की हिम्मत कम ही लोग कर पाते । उस दमदार भंवरे को सबक सिखाना मतलब अपनी जान-माल का नुक़सान ।
एक साधारण मिडिल क्लास आदमी को मछली की भांति पानी की विपरीत दिशा में अपनी बच्ची के लिए लड़ने का हौसला जुटाना बड़ी बात थी क्योंकि सब बोलते लड़की जात है आगे का जीवन खराब हो जायेगा तरह तरह के मशविरा देते । पिता उनकी बातों में आ जाते । मां को कदम पीछे खींचने कहते यद्यपि मां कई बार सोचने पर मजबूर हो जाती कहीं मैं गलत कदम तो नहीं उठा लिया । फिर बोलती मैं ऐसा करके दूसरो के लिए रास्ता भी खोल रही हूं।कब तक समाजिक डर से बेटियां अन्याय सहती रहेंगी ।
इस घटना का राजनीतिकरण होने से महिला संगठन की जागरूकता ने बचा लिया जो कि नारी संवेदनाओं की हितैषी थी । मां की दृढ़ता से वह पुनः हरी-भरी परिपक्व मूली की तरह लहराने लगी जिसके नीचे पाइपिंग में पीली सड़ी यादें दबकर रह गई।
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