लघुकथा, व्यंजनों का मज़ा- महेश राजा
4 years ago
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शादी का सीजन चल रहा था।
काफी दिनों से घर पर रहकर,घर का खाना खाकर लोग ऊब गये थे।वे एन्जॉय करना चाह रहे थे।फिर आज तो हद हो गयी।चार निमंत्रण एक साथ मिले।आफिस के मित्रों मे हडकंप मच गया ।सारी पार्टियां एक ही रोज है,कहाँ कहांँ जाये।खाने के शौकीन मुंगेरी लाल ने तो यहाँ तक कह दिया कि….एक ही दिन क्यों म. रहे है।अलग अलग दिनों मे रखते तो हर जगह अलग अलग व्यंजन खाने का आनंद आता।
मैंने पूछा,”-अब क्या करोगे?”
वह बोले-“पता लगाते है कि किसके यहां अच्छा माल बना है।वहीं पहले चलेंगे।सौ रूपये का लिफाफा देंगे ,तो कुछ तो वसूल करना ही पडेगा न।”
मैंने कहा-“यह तो तुम्हारी आदत में शामिल है।,सौ की जगह दो सौ रूपये
वसूल नहीं लेते,कोई काम नहीं करते ।तुम्हारी इस रूचि से तो पूरा आफिस परीचित है।”
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chhattisgarhaaspaas
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