






लेखिका विद्या गुप्ता की कृति ‘मैं हस्ताक्षर हूँ’ की समीक्षा लेखक कवि विजय वर्तमान के शब्दों में – ‘मैं हस्ताक्षर हूँ’ यह विद्या गुप्ता की सच्ची, निर्भीक और सर्व स्वीकार्य घोषणा है
‘मैं हस्ताक्षर हूँ’
लेखिका विद्या गुप्ता
समीक्षा विजय वर्तमान
संग्रह की कहानियाँ पहली नज़र में जो प्रभाव छोड़ती हैं , वह है विषयों की नवीनता और विविधता । लगभग सभी कहानियों का प्रारंभ ऐसा है कि लगता है कि सुनार की भट्ठी में अभी – अभी पिघला लाल तरल सोना कुछ नया गढ़े जाने को तैयार है । अछूते विषयों पर लिखी गयी कहानियाँ स्वयं को पढ़वा लेती हैं । विद्या जी नारी मन की अतल गहराइयों में गोताखोरी करके वहाँ छिपे अंतहीन ,विस्मयकारी गोपन रहस्यों की परतों को उघाड़कर मनोवैज्ञानिक निष्कर्षों के मोती लेकर बाहर आती हैं ।
कहानियों की सर्वकालिक प्रासंगिकता इनकी अतिरिक्त विशेषता है । लेखक का लिखना और पाठक का पढ़ना दोनों सार्थक हुआ जान पड़ता है । कहानियाँ जेहन में दीर्घ समय तक बनी रहती हैं ।
ऐसा बहुत कम होता है कि किसी रचनाकार का पद्य और गद्य दोनों ही समान रूप से आश्वस्तिकारक हों और पाठकों को दोनों ही विधाओं की रचनाओं की प्रतीक्षा रहती हो । विद्या जी ऐसी ही दुर्लभ और विरल श्रेणी की रचनाकार हैं ।
यह बार – बार सिद्ध होता रहा है कि कोई कवि जब गद्य लिखता है तो उसके गद्य में काव्य के सौंदर्य का बेसाख़्ता हस्तक्षेप होता है , फलतः गद्य में अतिरिक्त आभा और आकर्षण का सृजन हो जाता है । संग्रह में अधिकांश स्थलों पर लाजवाब और मनभावन काव्यमय चित्रण हैं । विद्या जी के गद्य में उपस्थित यह विशेषता पाठक को अतिरिक्त लाभ मिलने का सुख देती हैं । इन कहानियों की संक्षिप्तता इनकी अतिरिक्त योग्यता है जो इन्हें अपने कवि से मिली है ।
” देहगंध ” शब्द का जो अर्थ हमारी चेतना में चिपका हुआ है – वह है स्त्री देह की आदिम मादक गंध । इस अर्थ की कल्पना के साथ पाठक कहानी शुरू करता है । कहानी में स्त्री के सम्मान के सुखद प्रसंगों से रूबरू होता पाठक अंत में एक अलग ही पवित्र अहसास से भर जाता है , जब देखता है कि देहगंध शब्द वास्तव में शिशु के लिए माता की गंध के महत्व को बताने के लिए प्रयुक्त हुआ है । यह कहानी विषय की दृष्टि से बेहद चौंकाने वाली है , साथ ही करुणा और संवेदना की दृष्टि से भी ।
” मैं हस्ताक्षर हूँ ” अपने विषय की विलक्षणता के साथ साथ विषय को साधने – संभालने के लिए प्रयोग में लायी गयी भाषा और शिल्प के कारण ” वाह ” की अधिकारिणी हो जाती है । विद्या जी को शब्दों को औजार बनाना आता है । वे इतने सटीक और सार्थक शब्द वापरती हैं कि फिर उस अंश को विस्तार देने की ज़रूरत ही नहीं बचती ।
” अंतरराग ” एक कलाकार की मासूमियत को बयाँ करती मासूम सी कहानी है । दुनिया के छल-छिद्रों से बेख़बर और निर्लिप्त रहने वाले पात्र को उतनी ही साधुता के साथ गढ़ा गया है ।
” कौन सा सच ” में विलक्षण रूप से स्त्री मन की परतों के बीच दबे विस्मयकारी रहस्यों का उद्घाटन हुआ है । मन और देह में कौन कितना सच या झूठ है ? क्या किसी एक घटना पर मातम और खुशी एक साथ मनायी जा सकती है ? लिखने वाले से ज़्यादा पढ़ने वाला द्वंद्व में फँस जाता है ।
” एक और दांडी मार्च ” अनछुए विषय पर लिखी गयी वृहत्तर सामाजिक सरोकार से संपृक्त कहानी है ।यह बिल्कुल अनछुए विषय पर बेहद मार्मिक कथा है । कहानी के अंदर की कहानी को सुनाने के लिए नेपथ्य शैली से परहेज़ किया गया है , इससे प्रवाह बाधित हुआ है , इसकारण यह कहानी जितनी ताकतवर हो सकती थी , उतनी हुई नहीं । यह कहानी कम और रिपोर्ताज अधिक लगती है । इन सबके बावजूद यह सम्वेदना के स्तर पर बेहद ज़रूरी रचना है ।
विद्या जी कहानियों का मुख्य विषय है – नारी मन , उसका चेतन – अचेतन , उसकी उलझन – सुलझन , उसका द्वंद्व , उसकी रूढिप्रियता , विद्रोह की मुद्रा आदि …..। “स्वप्नजया ” एक आत्मसंयमा स्त्री के ह्रदय और देह के द्वंद्व की कहानी है । वर्णित स्थितियाँ विश्वसनीय और अविश्वसनीय दोनों भाव जगाते हैं । ऐसे विषय को साधने के लिए एक विशेष भाषा और शैली के साथ साथ नूतन शिल्प की आवश्यकता होती है । विद्या जी विषय को साधने में सफल हुई हैं ।
क्या चिकित्सा विज्ञान कहानी में वर्णित सम्भावना की पुष्टि करता है ? जीवन में कभी कभी कुछ अविश्वसनीय भी तो घटित होता है । सबकुछ कहाँ गणित के सूत्रों की भाँति अटल और अपरिवर्तनीय होता है । यह कहानी चमत्कार की सम्भावना को स्वीकारती है और तर्कवादियों को भी कुछ अतार्किक हो जाने का निवेदन करती है । विद्या जी की भाषा विलक्षण है और आपात स्थितियों में भाषा पर उनकी पकड़ सुखद है । इस कहानी में पाठक सुख और विस्मय की नाव पर सतत सवार रहता है । जिज्ञासा का निर्वाह अद्भुत है ।
” निःशर्त ” बेहद मासूम और निर्मल संवेदनाओं की कहानी है । नारी मन का एक और खुलासा इस कहानी में हुआ है । बचपन की स्मृतियाँ मन की गुफाओं में निस्पंद पड़ी होती हैं और अनुकूल आहट पाते ही जाग उठती हैं । यह कहानी हैरत में डालती है कि क्या इतनी सी बात पर भी कहानी बन जाती है ।
” मर्द ” कहानी का निर्वाह अनूठा है । जिन शब्दों और भाषा के साथ यह कहानी कही गयी है , वह इस अशालीन लगने वाले विषय को शालीन और स्वीकारेय बना देती है । यह पूरी तरह कसी और गठी हुई कहानी है । अंत में ” मर्द ” शब्द पूरी तरह सार्थक हो उठता है । यह कहानी अपने लेखक को प्रमाणित करती है ।
” आरक्षित अंत ” हमें हमारे समय की एक त्रासदी – विशेष से रूबरू कराती है । ट्रेन के कोच में एक मुकम्मल संसार का अस्तित्व होता है । बच्चों की मासूम , मनोहारी बातें , अनेक स्वभाव और चरित्र वालों की जीवन के प्रति मान्यताएं , गिले – शिकवे , दुःख – सुख , दुविधाएं आदि से धड़कता संसार का दिल कैसे यकायक एक अमानुष के द्वारा मसल दिया जाता है , इसकी बेहद सच्ची तस्वीर विद्या जी ने पेश की है । यहाँ आतंकवाद की वैचारिकी , उसके पक्ष और विपक्ष के तर्कों और दलीलों से बचते हुए कहानीकार ने यह दिखाया है कि कैसे यह इतराता संसार कतिपय विचारों से संचालित हथियारों के समक्ष बेबस और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है । कहानी का शीर्षक बेहद मानीखेज़ है । ट्रेन में सिर्फ़ सीट का ही आरक्षण नहीं होता अपितु मौत भी आरक्षित कर ली जाती है ।
” गोदी में बेटे को चूमती – खिलाती माँ भला एक बाँझ के दर्द को कहाँ जान पायेगी ” – जैसे अनेक मर्मस्पर्शी वाक्यों से लैस कहानी ” गूलर का फूल ” बेहद प्रभावशाली शिल्पकौशल से परिचित कराती है । पूरी कहानी में शिल्प का सौंदर्य दमकता है । बाँझ की पीड़ा पर कही गयी यह अलहदा प्रभाव वाली कहानी है । भावनाओं के अद्भुत निर्वाह के लिए इस कहानी का उल्लेख किया जा सकता है । विद्या जी की कहानियों में लक्ष्य से इतर कुछ भी अतिरिक्त नहीं होता । अनावश्यक विस्तार से बचने का हुनर उनके पास है । यह कहानी इस दृष्टि से भी अनुपम है ।
यह विडंबना ही है कि किसी कलाकार का जुनून उसे महान तो बना देता है लेकिन परिवार के जीवन को नारकीय बना डालता है । कलाकार की महानता को जन्म देने के लिए कितनी जिंदगियों को कुर्बान होना पड़ता है । कहानी में चित्रकार आकाश अपने कैनवास पर स्वयं अपने लिए क्रॉस बनाकर उसपर ख़ुद को लटका कर महान हो जाता है । कहानी में यह सवाल बेहद संयम के साथ उठाया गया है कि क्या किसी कलाकार को इस अमानुषिक गैरजिम्मेदारी का हक़ मिलना चाहिए । कहानी ” कैनवास के क्रॉस ” में दीप्ति का किरदार कलाकार आकाश के लिए सम्मान के साथ साथ घनघोर असहमति को व्यक्त करने में सफल हुआ है । शिल्प की दृष्टि से यह कहानी कविता का अहसास कराती है ।
” अपने गाँव ही लौटा हूँ भैया …” श्रीकांत के इस कथन में कहानी ” मिट्टी की गवाही ” की चेतना है । यह मेरे पसंदीदा विषय पर लिखी गयी कहानी है । गाँव की हवा , पानी और मिट्टी में जिसकी जड़ें होती हैं , वह शहर के आधुनिक , सर्वसुविधायुक्त वातावरण में अपना खुराक नहीं जुटा पाता — इस चिर-परिचित विषय पर विद्या जी ने लोकसांस्कृतिक झलकियों वाली मर्मस्पर्शी और रोचक कथा बुनी है ।
मनोविज्ञान की जमीन पर उगी नर्मो-नाज़ुक कहानी “अंगूरी रंग ” पग पग पर मन की उलझन को सुलझाती है । यह कहानी वस्तुतः उपन्यास बन जाने को आमादा नज़र आती है । विद्या जी यदि इसे भविष्य में उछाल कर आकाश में विचरने दें तो एक उम्दा कृति हमें मिलेगी । इस संग्रह की दो कहानियाँ बाँझ के केंद्रीय किरदार के सहारे बुनी गयी हैं । गूलर का फूल की शारदा और अंगूरी रंग की माया दीदी – दोनों बिल्कुल अलहदा चरित्र को उद्घाटित करती हैं । विद्या जी के अनुभवों और निष्कर्षों को ये कहानियां प्रमाणित करती हैं ।
” पिछले पन्ने पर ” सम्भवतः सर्वथा अछूते विषय पर बेहद सकारात्मक कथा है । संयोगवश हुई दुर्घटना से हुई अपूरणीय क्षति के आगे घुटने न टेककर , उसे ही अपनी ताकत बना लेने का अविश्वसनीय सा लगने वाला जज़्बा बेहद प्रेरक है । पाठक को लगता है कि इस कहानी ने उसे ताक़त दी है ।
” विषपायी ” में फ़िरसे नारकीय पीड़ा सहती निरपराध स्त्री की दास्तान है । विद्या जी का स्त्री पात्र यहाँ भी अपनी अभिशप्त स्थितियों , नारी जीवन की विवशताओं , प्रतिरोध के उफनते ज्वार के बावजूद चुप रह जाने की नियति आदि के साथ पाठक को व्यथित एवं आंदोलित करता है । इस कहानी का अंत लेखिका की जल्दबाजी का शिकार हुआ लगता है ।
” मुख़बिर ” में मथुरा नामक मूक-बधिर पात्र बेहद करुणा के साथ गढ़ा गया है । नक्सली हिंसा के औचित्य पर सवाल खड़े करती यह कहानी एक विवश विडंबना को उजागर करती है । कथा के प्लॉट में वैचारिकी से मुठभेड़ करने की कोई गुंजाइश नहीं बनती । यह विचार-प्रधान नहीं , करुणा-प्रधान रचना है ।
” मन के पारिजात ” इस संग्रह की अनूठी कृति है । यह अलहदा भावभूमि पर लिखी गयी है । जीवन में सफल और विचारों से सुलझी हुई मज़बूत स्त्री भी कैसे असुरक्षा – भाव की चपेट में आ सकती है — इसका बढ़िया चित्रण इस कहानी में हुआ है । यहाँ प्रेम की पवित्रता का सुंदर प्रतिपादन हुआ है । स्त्री मन का यह रूप भी दिखाया जाना ज़रूरी था । विद्या जी का शिल्प इस कहानी में देखते बनता है ।
पति की महिला मित्र गायत्री के दाहिने कंधे पर उभरे तिल ने कैसे एक भँवर की भांति रवि और स्नेहा के दाम्पत्य की सजी – सजायी नौका को एक झटके में डुबो डाला — इसका बेहद जीवंत चित्रण कहानी ” भँवर ” में हुआ है । इस कहानी ने सिद्ध किया है कि ऊपर से शान्त , गम्भीर और साधु दिखने वाली सर्वप्रिय शख़्सियत के अतीत में भी भँवर पैदा करने वाली लहरें हो सकती हैं ।
बेहद रफ़्तार के साथ शुरू हुई कहानी ” पानी के चित्र ” अंत तक धीमी नहीं होती । एक सांस में पढ़वा लेने वाली इस कहानी का विषय अद्भुत है । पानी से चित्र बनाने पर अशुभ घटित होने के अंधविश्वास से जन्मी यह कहानी चकित करती है । फ़िरसे भाषा की जादूगरी से पाठक हिप्नोटाइज होता है ।
बेहद मनभावन और रोचक चित्रण के साथ शुरू हुई कहानी ” बंद खिड़की की झिरी ” में वस्तुतः किशोर वय के नैसर्गिक आकर्षण और प्रेम की अभिव्यक्ति है । यह किसी को किसी भी प्रकार से हानि न पहुंचाती , किसी ग्रन्थि का शिकार न होती किशोरी बनाम युवती की कहानी है । इस कहानी से स्त्री मन के एक और रूप को समझने में मदद मिलती है ।
कहानी ” खंडिता ” में पति के दुर्घटनाग्रस्त होकर अपाहिज हो जाने से उपजी कठिन जिम्मेदारी को निभा लेने का संकल्प लेती नायिका पाठक के भीतर एक सुखद मानवीय अहसास जगाती है ।कहानी में ” यही होना चाहिए ” की अच्छी स्थापना हुई है । नायिका की दृढ़ता से पाठक पूरी तरह सहमत होता है । अपाहिज किंतु कर्मठ और इंसानी जज़्बा से भरपूर जीवन – साथी को त्यागना सचमुच अमानवीय होता । विद्या जी की शैली से कहानी के प्रभाव में इज़ाफ़ा हुआ है ।
विद्या जी की कहानियाँ वृहत्तर सामाजिक सरोकार से उपजी कहानियाँ नहीं हैं । ये व्यक्ति के , विशेषतः स्त्री के अन्तर्जगत को खंगालती कहानियाँ हैं । मनुष्य का मनोजगत सदा से ही प्रचण्ड कौतुहल का विषय रहा है ।वह सदैव नवीन और चौंकाने वाली गुत्थियों के साथ सामने आता है । साहित्य में उसे उसकी जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता । वस्तुतः कोई भी विषय साहित्य के लिए न कभी पुराना होता है और न कभी नया ।
डॉ सियाराम शर्मा लिखित भूमिका को भी मैं इस संग्रह की विशेषता मानता हूँ । प्रिय गुलबीर सिंह भाटिया की सार्थक , संक्षिप्त टिप्पणी संग्रह के प्रति मेरी सम्मति से सहमत होती प्रतीत होती है , यह मेरे लिए सुखद है ।
अंत में — विद्या जी की कहानियाँ हमें हमारे संसार को समझने में मदद करती हैं ।
• संपर्क-
• विद्या गुप्ता- 96170 01222
• विजय वर्तमान- 94062 07975
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