लघुकथा
●चिंता
-महेश राजा
गर्मियों के दिन निकट थे। सब जानवर अपने-अपने ठिकानों में दुबके पड़ेथे।जंगल के राजा शेरसिंह को शिकार नहीं मिल पा रहा था।वह सोच रहा था,आजकल ईंसानों तो जंगल आना छोड ही दिया।उन्होंने अपना खुद का जंगल राज बना लिया है’।यह सोच कर उसे बड़ी कोफ्त हुई।वह भूख के मारे बैचेन था।शरीर साथ न दे रहा था।क्या करें,क्या न करें।वाली स्थिति थी। अब वह बूढ़ा हो चला था तो मातहत भी उसकी बात सुनते नहीं थे।
तभी दूर से किसी गांव से भटकती,रास्ता भूलती हुयी एक बकरी पर उसकी नजर पड़ी ।शेर की आँखे चमक उठी।उसने पुचकार कर आवाज दी-“क्या बात है, ओ बकरी बहन .बड़ी कमजोर नजर आ रही हो?क्या बीमार चल रही हो।कुछ घांँस -फूस नहीं मिल रही हो खाने को तो।आओ ,मैं तुम्हारे भोजन का प्रबंध कर दूँ।आखिर कार तुम मेरी प्रजा हो।और मैं तुम्हारा राजा।मेरे राज्य में कोई भूखा रहे, यह मुझे मँजूर नहीं।”
बकरी ने यह सुन कर पैर जोड़े और लगभग भागते हुए जवाब दिया,-“आदरणीय शेर सिंह जी, आपको मेरी चिंता हो रही है या अपनी?”
इतना कह कर वह दूर जंगल से गांँव की तरफ दौड़ पड़ी।
शेरसिंह खिसयानी हँसी हँसते हुए सिर खुजा रहा था,-“सा…आजकल छोटे-छोटे जानवर भी कितने चालाक हो गये है।”
अब वह फिर से चल पड़ा,शिकार की तलाश में।।
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