कहानी : विद्या गुप्ता
(सुदर्शन जी की कहानी हार की जीत में बाबा भारती और खड़गसिंह की कहानी तो बचपन में हम सब ने पड़ी,- कथा का मूल भाव है बुराई के प्रचार को रोकना , ताकि विश्वास की परंपरा बनी रहे।
मैं बरसों इस कहानी के को प्रकाश में नहीं ला सकी । अंधे लाचार पर से जनता का विश्वास ना उठे। कहानी में बाबा भारती की उस महान भाव परंपरा का निर्वाह बना रहे।
●अंधा भिखारी
●विद्या गुप्ता, दुर्ग-छत्तीसगढ़
सावन का महीना था पहला सोमवार था ।आस्था की धूम मची हुई थी। सुबह से ही मंदिरों में शिव आराधना भक्ति संगीत और भक्तों की चहल-पहल मंदिर के प्रांगण में देखी जा सकती थी। वातावरण में उत्सव सी झलक साफ दिखाई दे रही थी। मुझे कुछ कारणवश तत्काल ही टिकट लेकर सफर करना पड़ा । वैसे ज्यादा भीड़ भाड़ ना होने से कंपार्टमेंट में बस कुछ सीटों पर ही यात्री बैठे थे अधिकांश सीटें खाली थी ।मेरी आरक्षित बर्थ पर एक वृद्धा सोई हुई थी।
मैंने हल्के से छूते हुए उससे पूछा- अम्मा आप कहां तक जाएंगी आप की सीट कौन सी है?
अम्मा ने बहुत गुस्से से मेरी ओर देखा और कहा- जे हमाइ सीट हे, हम कहीं नहीं जाएंगे, हमें बुखार है।
मैंने छू कर देखा सचमुच उसका बदन तप रहा था। मैं सामने की बर्थ पर बैठ गई टीटीआइ के आने का इंतजार करने लगी। ट्रेन में भीड़ भाड़ बिल्कुल नहीं थी सारी ट्रेन लगभग खाली ही पड़ी थी। टीटी के आने पर मैंने अपना बर्थ नंबर चेंज करवा लिया ,निश्चिंत हो चादर बर्थ पर फैला कर आराम से बैठ गई। मगर ट्रेन सीटी देकर रेगना शुरू करें उसके पहले ही एक अधेड़ उम्र का आदमी दौड़ता हांपता आया और जल्दी-जल्दी वृद्धा को गोद में उठाकर जाने लगा। मेरे पूछने पर उसने कहा- हमारा रिजर्वेशन आगे के कुपे में हो गया सो अब अम्मा को लिवाय जाते हैं।
वृद्धा के चले जाने के बाद केबिन में मैं अकेली थी। ऊपर की सीट पर कोई सोया हुआ था, साइट की बर्थ पर दो युवक बैठे थे जिन्हें तीन-चार घंटे की यात्रा के बाद उतर जाना था। मुझे किंचित भय सा लगने लगा यदि कोई और नहीं आया तो, रात का सफर अकेली कैसे करूंगी। फिर मुझे अपनी ही बदहवासी पर हंसी आ गई। यह ट्रेन का सफर है ऐसा कैसे होगा कि कोई और चढ़े ही ना।
तभी एक भिखारी सा दिखने वाला आदमी दीवार और सीट को टटोलकर पकड़ते हुए मेरे सामने की सीट पर आकर बैठ गया। शायद वह आंखों से अंधा था । उसकी गंदगी और बदबू से मुझे उबकाई सी आने लगी। चिक्कट मैला कुर्ता वैसी ही मैली पेंट, खूब फैली हुई बेतरतीब दाढ़ी, कीचड़ से सनी आंखें …… उफ भिखारी हो या अंधा लेकिन इतनी गंदगी ……!!ऐसा लगा, उसे सीट से भगा दूं ,मगर अपने भीतर सरसराती मानवीयता ने मुझे टोका- अगर यह सीट आरक्षित करवा कर बैठता तो मैं क्या कर सकती थी। फिर पूरे केबिन में एकदम अकेली हो जाने के भय ने भी मुझे रोक लिया।
रात 10:00 बज चुके थे आगे आने वाले स्टेशनों से चढ़ने वाला इक्का-दुक्का व्यक्ति कैसा हो…..!! केबिन में अकेली महिला को देखकर वह कैसा व्यवहार करें। अनजानी अदेखी संभावनाओं के लंबे होते साये मुझे डराने लगे। मैंने भिखारी को वहीं बैठे रहने दिया। किसी के न होने से कम से कम एक व्यक्ति की उपस्थिति तो है। फिर मुझे उससे किसी तरह के खतरे की गुंजाइश नहीं थी। खैर कुछ ना होने से कुछ होना ठीक है। मैंने उसकी गंदगी को इस शर्त पर बर्दाश्त किया, एवं थोड़ी सहज होने की कोशिश के बहाने उससे बात करने लगी।
कहां जाओगे बाबा…..!!
उसने कहा बिलासपुर….
मुझे भिखारी का जवाब कुछ इस तरह लगा मानो उसने कोई असंबद्ध बात कह दी हो। स्टेशन -स्शटेन चढ़ने उतरने वाले भिखारी भी क्या किसी काम से जा सकते हैं….? उसका गंतव्य जो मुझसे आगे था।मैंने खिड़की की और सिरहाना किया शाल को खूब अच्छे से शरीर पर लपेटा और उसकी गंदगी और बदबू से बचने के लिए मन को इधर-उधर के ख्यालों में बहलाने लगी।
इस बीच एक दो घटनाएं ऐसी हुई कि मन वितृष्णा और गुस्से भर गया। हुआ यूं कि, गंदगी से सराबोर भिखारी मैं खुजलाने और बड़बड़ाने की आदत भी शामिल थी। वह हाथ पैरों पर लगातार खुजलाते जा रहा था। अचानक कुर्ता ऊंचा कर वह पेट खुजलाने लगा….. फिर हाथ को पेंट के अंदर घुसा कर खचर खचर खुजलाता, और चिमटी से कुछ नोच कर बाहर फेंकता…… उफ! अकेली होने के भय की इतनी बड़ी सजा
नहीं नहीं ……मैंने सअभिप्राय साइट की सीट पर बैठे युवकों की और देखा, वे खुद भी मेरी परेशानी को महसूस कर रहे थे। उन्होंने भिखारी को डांटा उसके बड़बड़ाने पर वे दोनों उसको वहां से पकड़कर टॉयलेट के पास बिठाआए।
मैंने चैन की लंबी सांस ली। ट्रेन मेरे मन के हालात से अनजान अपने गंतव्य की ओर भागी जा रही थी। तभी फिर दृश्य बदला, भिखारी का बड़बड़ाना सतत जारी था। वह मन की खुजलाहट और भड़ास को निकालने के लिये बड़बड़ाये जा रहा था…..!!
बड़े आए रिजर्वेशन वाले…. ये पैसे वाले लोग गरीबों को तो जानवर समझते हैं…. खाली पड़ी सीट पर भी नहीं बैठने देंगे….. जैसे ट्रेन खरीद ली हो….. सारी जगह इनके बाप की…. उसकी बड़बड़ाहट को पास के केबिन में कारगिल युद्ध से घर लौटते सैनिक ने सुनी…………….. देशप्रेम और बहादुरी की भावना से ओतप्रोत उसका ह्रदय इस असमानता पर भर उठा। केबिन में सीट खाली पड़ी है। और हम खुदगर्जो ने एक गरीब भिखारी के साथ कैसा अनुचित सा व्यवहार किया। उस कर्तव्यनिष्ठ सैनिक ने युवक को उनकी खुदगर्जी और अमानवियता के लिए डांटते हुए,कहा , एवं खुद उस भिखारी को हाथ का सहारा देकर सीट पर ला बिठाया। सिवाय इसके कि मुंह घुमा कर दूसरी और कर लू और चुपचाप सो जाओ, कोई दूसरा रास्ता नहीं था।
ठंडी हवा और रेल की खतर पटर के संगीत की लय में जाने कब मुझे नींद लग गई । रात्रि के लगभग 2:00 का समय होगा अचानक मुझे अपने पैरों के पास किसी स्पर्श का एहसास हुआ । मैंने चौककर आंखें खोली देखा, अंधा भिखारी मेरे पैरों के पास खड़ा था।
मैंने थोड़ा जोर से पूछा- क्या है बाबा….!! कुछ नहीं बहन जी दरवाजा खुला है ना बहुत ठंडी लग रही है मैं दरवाजा बंद करने जा रहा था ।
मैं सहज हुई शायद अनजाने ही उसका हाथ मेरे पैरों को छू गया होगा। मैंने शॉल को अच्छे से लपेटा और फिर सोने की कोशिश की। साइट की बर्थ वाले दोनों युवक उतर चुके थे । एक बार मैंने फिर सहज होने की कोशिश । अक्सर सफर करते समय कभी-कभी मैं इस अनहोनी को सोचती परेशान हो जाती थी कभी ऐसा हुआ कि ट्रेन में मैं अकेली रह जाऊं तो मगर आज सचमुच अपने केबिन में मैं उस अधिकारी के साथ अकेली थी अब भगवान की बारी थी अंततः भगवान को याद कर फिर सोने की कोशिश करने लगी लेकिन 1 घंटे बाद अधिकारी ने पैरों को छूने वाली हरकत को फिर दोहराया इस बार मैंने खींचकर भिकारी से पूछा क्या कर रहे हो बाबा अधिकारी ने निहायत का तड़का से जवाब दिया पैसा आप करने जा रहा हूं बहन जी मैं गुस्से और खींच के बावजूद निरुत्तर थी क्योंकि बेचारा अंधा था फिर एक बार फिर सोने की कोशिश की इस बार पैरों को घुमा कर खिड़की की ओर कर लिया लेकिन मन आशंकित था ही खाली केबिन ऊपर सोया यात्री भी कहीं उतर चुका था भिखारी की गंदगी से उपजी जुगुप्सा से मन हट से भरा था मगर कोई रास्ता नहीं था मन खड़ा किया फिर से लिपट कर सोने की कोशिश करने लगी डर चिंता सतर्कता और नींद की मिली-जुली आरतियां आ जा रही थी इन्हीं लहरों में डूबते हुए अचानक फिर हाथों पर हल के चुपते स्पर्श ने मेरी सतर्कता वाली चेतना को झकझोर दिया वही गंदगी भरा एहसास थी मेरे सिरहाने खड़ा था इस बार उससे क्यों कैसे पूछने का धैर्य मुझ में नहीं था गुस्सा नफरत और एक आदत मेरी आंखों से बरस रही थी जाने कब कैसे मेरा हाथ उठा और अधिकारी के चेहरे पर की आवाज के साथ चस्पा हो गया शर्म नहीं आती अंधे भिखारी होगा तुम्हारी गुस्सा नहीं गई और कितने कुकर्म करोगे और भागोगे अंधा था किंतु मेरा उबाल अभी उफान पर था मैं उसकी हिम्मत पर हवा थी अपना सामान उठा और निकल यहां से अब तो पूरी ट्रेन में कहीं दिखाई पड़ा तो पुलिस के हवाले कर दूंगी।
माफ कर दो बहन जी माफ कर दो कहीं गलती से हाथ लग गया होगा कह कर वह अपने ढोला तेली उठाकर जिस तेजी से भाग खड़ा हुआ कि एकबारगी मुझे शक हुआ कि वास्तव में वह अंधा था या नहीं झूठ बोल रहा था मेरे हाथ उस पर उसके छूने का हिसाब उसी गंदगी से के साथ लिपटा हुआ था मैंने सांसो को सहज किया उठ कर पानी पिया घड़ी में समय देखा 4:30 बज रहे थे आकाश में अंधकार की सघनता कम हो रही थी गहरी लंबी सांस लेकर मैंने भिकारी के चले जाने के हल के पंखों महसूस किया चला गया मगर मेरे पास कई प्रश्न छोड़ गया उसने ऐसा क्यों किया क्या उसे अपनी दुर्दशा ज्ञानी पकड़े और पीटे जाने का कोई डर नहीं था मुझे छूने की उसकी हिम्मत कैसे हुई क्या मुझे अकेली देखकर उसके अंदर की पथराई कुत्ता इतनी प्रबल हुई कि वह नियंत्रण न कर सका तमाम उलझे प्रश्नों का जवाब पूछते मैं इस नतीजे पर पहुंचकर रुकी कि शायद जीवन भर अभाव अपमान तिरस्कार से निरंतर एक बच्चा किस तरह पर किट्टू के फूल की तरह जीता है जिसका जीना मरना एक ही सिक्के की दो तस्वीर सा होता है किसी भी रिक्त स्थान को नहीं करता वह स्वयं के लिए ही निरुत्तर है कि वह क्यों जी रहे हैं यह सारी तस्वीर मुझे उसकी किंचित सहानुभूति के कारण उपजे 12 वाक्यों के वार्तालाप से ज्ञात हुई जब मैंने अपने अंदर की विशेषता को महान बनाते हुए एक नितांत हास्य पर खड़े व्यक्ति से दो शब्द बात की थी कहां जा रहे हो।
[ ●निरन्तर लेखन में सक्रिय विद्या गुप्ता की रचनाएं देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहती है. ●आकाशवाणी औऱ दूरदर्शन से सम्बद्ध, विद्या गुप्ता जी की दो काव्य संग्रह- ‘औऱ कितनी दूर’, ‘पारदर्शी होते हुए’ प्रकाशित हो चुकी है. ●कहानी,कविता,निबंध, लघुकथा, यात्रा संस्मरण में सिद्धहस्त विद्या गुप्ता जी ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ के लिए भी नियमित रूप से लिखती हैं. ●आज़ उनकी नई कहानी,’अंधा भिखारी’ प्रस्तुत है, कैसी लगी, बतायें. -संपादक ]
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