लघुकथा
■बैरंग लिफाफा
-विक्रम ‘अपना’
पोस्टमैन!!
डाकिया बाबू, खुद से ही खुद का नाम उचारते हुए दरवाजे पर खड़े थे। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस मोबाईल युग में भी कोई पत्र लिख सकता है।
गेट पर लगी लोहे की पत्र पेटी उपयोगिता व देखरेख के अभाव में सड़ चुकी थी।
मैं झटपट पोस्टमैन के पास पहुँचा। मैंने देखा कि उसके हाथ में साधारण डाक का लिफाफा था। पोस्टमैन मुझसे बैरंग लिफाफे का जुर्माना मांग रहा था। मैंने गुस्से में भरकर लिफाफे पर भेजने वाले का पता देखा पर उसमें कुछ नहीं लिखा था। अभी मैं यह विचार कर ही रहा था कि यह लिफाफा लूँ या लौटा दूँ पर जब मैंने उस पर गाँव की लगी सील देखी तो मैं समझ गया कि निश्चित ही, यह पत्र मेरे किसान पिता ने लिखा होगा।
हठात!! मुझे लगा जैसे मिट्टी से सने मेरे पिताजी मेरे सामने खड़े हैं। पत्र रूपी उस पवित्र देह को मैंने माथे से लगाकर चूम लिया।
सूखे, गरीबी और लाचारी के कारण मेरे किसान पिता अब बैरंग लिफाफा ही तो थे।
[ ●शासकीय उच्चत्तर माध्यमिक विद्यालय, भिलाई, छत्तीसगढ़ में पदस्थ विक्रम’अपना’ रचनात्मक लेखन में सक्रिय हैं. ●कई साहित्यिक संगठन से जुड़े विक्रम ‘अपना’, ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ के लिए नियमित रूप से लघुकथा, कविता प्रेषित करते रहते हैं. ●आज़ लघुकथा ‘बैरंग लिफाफा’ प्रस्तुत है, कैसी लगी,अवश्य लिखें. -संपादक ]
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