लघुकथा
■लाठी
– महेश राजा
[ महासमुंद, छत्तीसगढ़ ]
बेटे ने आकर पिता के चरण-स्पर्श किये।
पिता ने ढेर सारे आशीर्वाद दिये।
बेटा बोला-“बापु मैं कभी विवाह नहीं करूंगा!”
पिता हँसे-“क्यों बेटा?”
बेटा-“क्योंकि विवाह के बाद बेटा-बहु अलग हो जाते हैं,, फिर माता पिता को अकेले रहना पड़ जाता हैं।शहर में आजकल ऐसा ही हो रहा हैं”।
दरअसल इस पिता के दो पुत्र है।बड़ा पढ़ -लिख कर अपनी नौकरी के सिलसिले में शहर में रहता है।छोटा साथ में है।पत्नी का देहांत पिछले वर्ष ही हो गया था।छोटा सा खेत है।अब उन्हें कम दिखता है।खेत छोटा सँभालता है।खाने योग्य अन्न पैदा हो ही जाता है।बड़ा हर माह खर्च के लिये कुछ रूपये भी भेजता है।छुट्टियों में वे घर भी आते है।
पिता ने बेटे के कँधों पर हाथ रखा-“बेटा हर घर में ऐसा हो यह जरूरी नहीं।फिर यह परिस्थिति पर निर्भर करता है।समय पर तुम्हारा विवाह भी होगा।ईश्वर सब ठीक ही करता है।”
बेटा पिता के गले लग कर रोने लगा-“,नहीं…नहीं… बापु मैं तुम्हारी लाठी बन कर सदा तुम्हारे साथ ही रहूँगा।”
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