






तीन लघुकथा ●विक्रम ‘अपना’.
पहली लघुकथा
किराये का घर
मियाद खत्म होने वाली थी। घर के मालिक ने, किरायेदार को घर खाली करने की ताकीद करवा दी।
लेकिन काफी समय रह लेने के बाद, किरायेदार तो उसे ही अपना घर मानने लगा था।
अब वह धृष्टतापूर्वक कहने लगा…… तुम्हें जो कुछ भी करना हो कर लो! पर मैं यह घर खाली नहीं करूंगा।
एक दिन, दूतों ने आकर बलात उससे वह घर खाली करवा लिया क्योंकि वह घर तो किराये का था, जिसका मालिक स्वयं परमपिता परमात्मा था।
दूसरी लघुकथा
राम से बड़ा राम का नाम
कबीर जहां रहते थे, उसी के आगे एक धनिक की विशाल अट्टालिका थी। वह हरिप्रिया यानी श्री लक्ष्मी का घोर आराधक था। वह दिन भर सिर्फ रुपये पैसे, मोती माणिक्य की ही बातें करता व छलपूर्वक इनका संग्रह करता रहता।
एक दिन वह मूढ़ वणिक् किसी मजबूर याचक के सोने को, पीतल बताकर कम दाम में सौदा कर रहा था। यह दृश्य देखकर कबीरदास जी ने उसे चेताते हुए सच्चे सौदे की महत्ता बताते हुए, यह पद गुनगुनाया…….
यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान,
शीश दिए जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान ।
वह धनिक ने जब यह ज्ञान सुना तो वह संत कबीर को भला बुरा कहते हुए, घर के भीतर तेजी से दाखिल हो गया।
वैसे तो उस धनिक की कोई संतान न थी पर धन के लोभ ने उसके समूचे व्यक्तित्व को निगल लिया था।
गरीब मजदूर, किसान, मजबूर लड़की का बाप, सब उसके गिरवी और ब्याज के जाल में फंसकर पूरी तरह से बर्बाद हो चुके थे।
वह लगातार सबकी आहें लेता जा रहा था।
कुछ दिनों बाद कबीरदास जी फिर उसी रास्ते से गुजरे।
वह लोभी अब मरणासन्न था। अंत समय में, उसके नीच कर्म उसे भयानक नारकीय यंत्रणा दे रहे थे।
उसे रह रहकर अपने जीवनभर के पाप की कमाई व सताए गए लोगों का चेहरा यमदूत के रूप में दिखाई दे रहा था।
धन के ढेर के बीच पड़े पड़े बड़ी मुश्किल से उसके प्राण निकले।
आखिर में वह नंगा ही श्मशान पहुंचा।
कबीर ने जब उसके देह को अग्नि की लपटों में घिरा देखा तो यह दारुणिक दृश्य देख, आंखों में करुणा के आंसू भरकर वे बोल उठे…….
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास
उनके श्रीमुख से भावसमाधि की स्थिति में, अमोघ ज्ञानगंगा वाणी रूपी कलकल करती सरिता निःसृत होने लगी……
रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुडिया, बूँद पडे गलि जाना है।
यह संसार काँटे की बाडी, उलझ पुलझ मरि जाना है॥
यह संसार झाड और झाँखर आग लगे बरि जाना है।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतुगरु नाम ठिकाना है॥
अभी कबीर यह पद गा ही रहे थे कि श्मशान के बाहर से गुजरते तुलसीदास जी भी यह पद गाने लगे…..
तुलसी-तुलसी सब कहें, तुलसी वन की घास।
हो गई कृपा राम की तो बन गए तुलसीदास।।
अब कबीरदास और तुलसीदास सहित उपस्थित सभी जन मन ने गगनभेदी स्वर में परमसत्य का जयघोष किया……
राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत है।
उधर अनंत लोक में माता सीता के साथ विराजित, सियापति भी भरे भाव व अचरज में डूबकर उच्चारित करने लगे ……
राम से बड़ा राम का नाम…..।
तीसरी लघुकथा
गोदान औऱ टाइम मशीन
यह बात सन 1936 की है।
एक लेखक सादे लिबास में गाय, गोबर, धनिया को साथ लेकर प्रकाशक के चमचमाते कार्यालय में पहुंचा। उसके साथ रॉय साहब और होरी भी थे।
प्रकाशक ने नाक मुंह सिकोड़ते हुए और लगभग चिल्लाते हुए कहा……
यह सब क्या है?
और तुम्हें भीतर किसने आने दिया?
उस कलम के सिपाही ने मृदुलता से कहा……. मैं गोदान छपवाना चाहता हूँ।
माथा पकड़े प्रकाशक ने, उनके लिखे कथानक को पल भर में पढ़ते हुए, उलट पलटकर देखते हुए कहा…….
अरे भाई!!! इसमें हीरो हीरोइन, विलेन, लव रोमांस, लिव-इन रिलेशनशिप डेटिंग, वायलेंस फ्लर्ट सस्पेंस कहाँ हैं? और मेट्रो वाली फ्री लाईफ स्टाईल भी तो नहीं है। केवल सीधे सादे सरल गाँव वालों की बातें और उनकी गरीबी व मजबूरी का ही जिक्र है।
ना जी ना!!
यह छापना तो एकदम ही घाटे का सौदा है।
सॉरी……।
चलते चलते पूछने पर, लेखक ने अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए कहा……मेरा नाम धनपत राय श्रीवास्तव है।
अब वे अपना उपन्यास छपवाने हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई की ओर चल पड़े।
दरअसल, वे तो महान उपन्यासकार, उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी थे जो टाइम मशीन की गलती से अगले युग में पहुंच गए थे।
●लेखक संपर्क-
●98278 96801
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