लघुकथा
■मन कर्दम कर ले दूर
-तारकनाथ चौधुरी
[ चरोदा-भिलाई,छत्तीसगढ़ ]
मुझे ज्ञात नहीं कब से प्रति मंगलवार को हनुमान जी के मंदिर जाने को जीवन के परम कर्तव्य के रूप में अंगीकार किया है।इस पर कोई तर्क,कोई प्रश्न या हानि-लाभ का विश्लेषण न मैंने स्वयं से किया और न आप से विमर्श अपेक्षित है।आज भी नियत समय पर ही मंदिर परिसर की परिधि में आ गया था।पंडित जी अपना आसन छोड़ अहाते में किसी व्यक्ति से बात कर रहे थे।मुझ पर दृष्टि पड़ते ही संकेत में तनिक प्रतीक्षा की बात कह दी।मै प्रभु-दर्शन के पश्चात् एक कोने में बैठकर हनुमान चालीसा पढ़ने लगा।पाठ-समाप्ति के पश्चात् हर बार की तरह आज भी पंडित जी से औपचारिक बातें करने लगा।किंचित् आकुल-भाव से ही मुझसे कहने लगे-“गुरूजी!इस संक्रमण काल में भक्तों को उनके प्रभु की पूजा करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिल रहा और न ही पहले की तरह “दर्शन-लाभ” ले पा रहे हैं,तो ऐसे में कौन सी युक्ति से भक्त-वृंद को संतुष्ट किया जा सकता है,कृपया सुझायें!”
मैंने निमिष में उनसे कहा-“प्रवेश द्वार पर रामचरित मानस की ये चौपाई लिखवा दें– *निर्मल मन जन सो मोहि पा़वा।
मोहि कपट छल-छिद्र न भावा।।
अर्थात्-“जो भक्त,अपने मन से विकारों,वासनाओं के कर्दम हटाकर उसे स्वच्छ और निर्मल कर पायेगा उसे ही मेरा दर्शन-लाभ मिलेगा।”
पंडित जी के संशय को दूर करने के हित मैंने कहा -“महाराज!आत्मशुद्धि का यह मंत्र पढ़कर भक्तों को उपासना का नया मार्ग मिलेगा और अर्थहीन पूजा से मुक्ति मिलेगी ”
फिर क्या था..हम दोनों मुस्कुराकर बोल उठे- सिया बल रामचंद्र की जय,पवनसुत हनुमान की जय।
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