■लघुकथा : •महेश राजा.
●मैं तुलसी तेरे आँगन की.
-महेश राजा
[ महासमुंद-छत्तीसगढ़ ]
फोन की घंटी बज उठी।रीमा समझ गयी,राज ही होगा।
अपने हाथों से ब्रश को एक जगह रखकर हाथ पोंछे।उसका मन खिल उठा।राज को बहुत कुछ बताना था।
-“क्या कर रही हो?”-राज के पूछने पर वह चहक उठी-“तुम विश्वास नहीं करोगे राज आज मैं बहुत खुश हूँ।मैंने अपने गमलों को खास कर तुलसी वाले गमलों को रँगना शुरु किया है।तुम देख पाते।इतने सुंदर लग रहे है।”
राज भी खुश हो गया।वह रीमा के सर्वगुण संपन्न से भली भाँति परीचित था।रात कितनी भी देर से सोयी होगी,सुबह साढ़े तीन बजे उठ गयी होगी।उपर नीचे छत को साफ करना,आँगन बुहारना,पौधों की देख भाल,स्नान,ध्यान और बच्चों का नाश्ता सब कर चुकी होंगी।
दोनों के बीच लंबी अंतरांग बातें हुयी।जीवन के शिकवे शिकायत की बाते होती रही।तभी अवि की आवाज आयी तो रीमा ने इजाजत माँगी।
रीमा ने अवि को पास बुलाया।साथ ही गमलों को नव रंग प्रदान करती रही।वह चाहती थी उसकी कारीगरी को सर्वप्रथम उसका लाडला ही देखे।
उसने अवि को पास बुला कर कहा-“देखो बाबु,मम्मा ने कितना अच्छा कलर किया है।ठीक लग रहा है?”
अवि ने हामी भरी और कोई फरमाइश की तो वह बोली-“बस ,थोड़ा और रह गया है।काम पूरा कर आती हूँ।”
राधाजी का भजन गुनगुनाते हुए।उसने कार्य पूरा किया।वह बहुत खुश थी।वह यह भी भूल गयी थी कि कालेज में विभागाध्यक्ष ने उसे जबरन डाँटा।एक नकचढ़े कलीग ने उसका मजाक उडाया।साथ ही लह यह भी भूल गयी थी कि भोजन की टेबल पर उसके पति ने उसका अपमान किया।
उसे तुलसी का पवित्र पौधा नजर आ रहा था और स्वयं के द्बारा किया गया,रंग रोगन।मन ही मन तुलसी को प्रणाम कर वह तेजी से सीढियाँ चढ़ गयी।
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