■लघुकथा : •तारकनाथ चौधुरी.
●बाबूजी
-तारकनाथ चौधुरी
[ चरोदा-भिलाई, छत्तीसगढ़]
नियत तिथि तक कनफर्म्ड नहीं हुई थी टिकट और मैं प्रतीक्षा सूची में ही रह गया था।भीषण गर्मी में बिना आरक्षण के यात्रा करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था मैं लेकिन मित्र शिवा के हौसले से मैंने जाने का उपक्रम किया। स्टेशन पहुँचते ही शिवा मेरे हाथ से टिकट लेकर जाने कहाँ चला गया।उधर ट्रेन के पहुँचने की बार -बार हो रही घोषणा से मेरी धड़कनें बढ़ चली थीं।मेरी बदहवाश नज़रें यात्रियों की भीड़ में शिवा को तलाश रही थीं।तभी उसे तेज़ कदमों से मेरी तरफ आता हुआ देखा।आते ही उसने मेरा सूटकेस उठाया और एस5 की तरफ चलने को कहा।चलते-चलते उसने आश्वस्त किया कि टी.टी.से बात हो गई है एडजस्ट कर देंगे।सही समय पर ट्रेन का आगमन हुआ और जैसे-तैसे शिवा के सहारे मैं एस5 में सवार हुआ जो एक अनारक्षित बोगी की तरह लग रही थी।पहले से ही हताश खडे़ यात्रियों के बीच मेरा बैठने का प्रयास देख कईयों के चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान की रेखायें नर्तन करने लगी थीं।सूटकेस का भार मुझसे सहा नहीं जा रहा था।ऊपर-नीचे,अगल-बगल हर तरफ सामान ठूँसा रखा था।मैं बार-बार सूटकेस वाले हाथ को आराम देने के हित बदलता रहा।तभी एक स्नेहिल संबोधन से मैं चौंका।खिड़की के पास बैठे बुजु़र्ग ने-*बेटा,इस तरफ आ जाओ *-कहते हुए मेरे हाथ से सूटकेस लेकर अपने पाँव के नीचे की खाली जगह पर सुरक्षित रख दिया था।मैंने जब आभार प्रदर्शन के उपक्रम में उन्हें “धन्यवाद बाबूजी” कहा तो वो इस तरह से अपना हाथ उठाये मानो मुझे आशीर्वाद दे रहे थे।दो-तीन स्टेशन गुज़र जाने के बाद उन्होंने अपने आरक्षित सीट पर मुझे भी बिठा लिया।मैं ,उनके उपकार के बोझ को लाघव करने के लिए उनके चरण छूकर उन्हें दुबारा धन्यवाद ज्ञापित किया।औपचारिक प्रश्नों को न करते हुए बाबूजी ने एक हैरान करने वाला प्रश्न मुझसे किया,उन्होंने कहा-“इतने सारे खडे़ यात्रियों में मैंने तुमको ही अपने पास बुलाकर,किसलिए बिठाया जानते हो?” मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था।मैं संपूर्ण कृतज्ञता भाव से अवाक् उनकी तरफ देखता रहा।तब वो मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले-“तुम रुद्र के दोस्त न हो न?” मैं उनके इस प्रश्न से हतप्रभ था।अपना हाथ उनके घुटनों पर रखते हुए मैंने कहा-हाँ!हाँ!बाबूजी…लेकिन आप मुझे कैसे पहचाने?” तब उन्होंने कहा-“उसके एल्बम और मोबाइल में घर वालों से ज्यादा तुम्हारी ही तो तस्वीरें हैं बेटा,हमारे परिवार का कोई भी तुम्हें देखता,तो पास बुला लेता।”मैंने कहा-“बाबूजी!लेकिन जबसे लाॅक डाउन लगा है,उसका फोन स्विच आॅफ क्यूँ बता रहा है?उससे कोई भी संपर्क नहीं हो पा रहा है…..!”इसके बाद जो हुआ,वो किसी वज्रपात से कम न था।बाबूजी मुझसे लिपटकर रोने लगे।रूँधे स्वर में बोले-“अब रुद्र का किसी से भी संपर्क नहीं रहा बेटा…वो भी कोरोना महामारी का शिकार हो गया…अब मुझे कौन बाबूजी कहकर पुकारेगा?”इतना सुनते ही मैं बाबूजी के सीने से लगकर रोने लगा और न जाने कितनी बार सिसकियों के साथ “बाबूजी..बाबूजी..”कहता रहा।
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