■लघुकथा : •डॉ. डीपी देशमुख.
●स्नेह
-डॉ. डीपी देशमुख
[ भिलाई-छत्तीसगढ़ ]
एक शहरी नदी का तट।दो अलग-अलग पत्थरों पर बैठे युवक और युवती निस्पंदन का घूंट पी रहे थे।कुछ ही फासले पर एक कब्र थी,जिसे युवती एकटक देख रही थी।कब्र के करीब ही एक चिराग बुझा हुआ पड़ा था।
इधर युवक की भुजाएं रिक्त थी।वह युवती से स्नेह की अपेक्षा लिए चुप बैठा था।–एक सीमा के बाद वह भाव भरे शब्दों में बोला–“मैं दुनिया में सबसे ज्यादा तुम्हें प्यार करता हूँ।सचमुच,तुम्हारे लिए,अपने प्यार को सच्चा सिध्द करने के लिए आग में कूद सकता हूँ।मैं अपनी जान भी कुर्बान कर सकता हूँ।”
इससे युवती का ध्यान कुछ तो हटा किन्तु उसका संदेह अभी भी बना हुआ था।उसने कहा–“यदि तुम मुझे इतना स्नेह करते हो तो कल मुझसे मिलने क्यों नहीं आये इसी स्थान पर,इसी कब्र के करीब?”
युवक ने कहा–“कल आता कैसे,प्रिये?दिन भर तो पानी बरसता रहा और मेरे पास छतरी थी नहीं,और निःसंदेह यह तुम कभी न चाहती कि मैं भीग जाऊँ।”
युवती ने उसे गौर से देखा,मन उसका फट सा गया था,मानों युवक के चेहरे में अंगूर की खटास भरी हो।वह कुछ पल रुक कर बोली-“तुम्हारे स्नेह का मतलब है,वह मैं अच्छी तरह समझती हूं।”
युवक– ” क्या”?
युवती–“तुम स्नेह के आवरण में मेरा शरीर पाना चाहते हो। चाहते हो,न?”
युवक–“जब तुम अच्छी तरह समझती हो,तो मुझसे पूछने का क्या तुक है?”
युवती–“तुक है? बोलो,तुम मेरे शरीर को पाना नहीं चाहते?”
युवक ने उसे ऐसे देखा जैसे उसे पहली बार देख रहा हो।वह बिना कुछ कहे उठा और तेजी से शहर की ओर बढ़ गया।
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