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विशेष : गजानन माधव मुक्तिबोध जन्म 13 नवम्बर पर..
अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब
▪️ मुक्तिबोध वस्तुत: जीवन दर्शन, व्यवस्था की विसंगतियों और सामाजिक चेतना से साक्षात्कार करते हुए जीवन के सौंदर्य को तलाशते हैं.
▪️ यथार्थ से सीधे साक्षात्कार करने का नाम है मुक्तिबोध..
▪️ – आलेख गणेश कछवाहा
मुक्तिबोध के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसमें युग की नई चेतना नये रूप में अभिव्यक्त हुई है वह भी नई काव्य भाषा में। जिसमें चेतना और भावना के विद्रोह के साथ भाषा का विद्रोह भी मिलता है। … मुहावरे, लोकोक्तियों का प्रयोग भी उनकी काव्य भाषा में हुआ।
गजानन माधव मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य के ऐसे कवि हैं जिन्होंने छायावाद से काव्य रचनाएं आरम्भ की और प्रगतिवाद, प्रयोगवाद व नई कविता की युगधाराओं से जुड़ते हुए काव्य में ऐसी काव्य भाषा और शिल्प का प्रयोग किया
मुक्तिबोध काव्य को दो प्रकार का मानते हैं- यथार्थवादी और भाववादी या रूमानी। उनके अनुसार, ”कलाकृति स्वानुभूत जीवन की कल्पना द्वारा पुनर्रचना है। यथार्थवादी शिल्प के अन्तर्गत, कलाकृति यथार्थ के अन्तर्नियमों के अनुसार यथार्थ के बिम्बों की क्रमिक रचना प्रस्तुत करती है किन्तु भाववादी रोमांटिक शिल्प के अन्तर्गत कल्पना अधिक स्वतन्त्र होकर जीवन की स्वानुभूत विशेषताओं को समष्टि चित्रों द्वारा, प्रतीक चित्रों द्वारा प्रस्तुत करती है। मुक्तिबोध वस्तुतः जीवन दर्शन ,व्यवस्था की विसंगतियों और सामाजिक चेतना से साक्षात्कार करते हुए जीवन के मुक्ति का मार्ग तलाशते हैं।यथार्थ से सीधे साक्षात्कार करने का नाम है मुक्तिबोध
संक्षिप्त जीवन वृत्त –
गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर, 1917 को रात 02 बजे श्योपुर मध्यप्रदेश में माधवराव-पार्वती दंपत्ति के घर हुआ। पूरा नाम रखा गया- गजानन माधव मुक्तिबोध। माता-पिता की तीसरी संतान थे। उनसे पहले के दोनों शिशु अधिक जीवित नहीं रह सके थे। इस कारण मुक्तिबोध के लालन-पालन और देख-भाल पर अधिक ध्यान दिया गया। उन्हें खूब स्नेह और ठाठ मिला। शाम को उन्हें बाबागाड़ी में हवा खिलाने के लिए बाहर ले जाता। सात-आठ की उम्र तक अर्दली ही उन्हें कपड़े पहनाते थे। उनकी सभी ज़रूरतो का ध्यान रखा जाता रहा, उनकी हर माँग पूरी की जाती रही। उन्हें घर में ‘बाबूसाहब’ कहकर पुकारा जाता था। वे परीक्षा में सफल होते तो घर में उत्सव मनाया जाता था। इस अतिरिक्त लाड़-प्यार और राजसी ठाट-बाट में पला बसा।
पिता इंस्पेक्टर पद से उज्जैन में सेवानिवृत्त हुए। जब रिटायर हुए तब आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं थे। वे न्यायनिष्ठ एवं ईमान पसंद शख्शियत के लिए प्रसिद्ध थे। लाड प्यार से पले मुक्तिबोध को आर्थिक संकट से जूझना पड़ा।जिससे जीवन के यथार्थ को बहुत नजदीक से जाने बुझे और समझे।
17 फरवरी 1964 को अकस्मात पक्षाघात हुआ और अन्ततः 11सितम्बर 1964 को प्राण त्याग दिए।
शिक्षा –
इनके पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे। अक्सर उनका तबादला होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध की पढाई में बाधा पड़ती रहती थी तथा आर्थिक तंगी से भी दो चार होना पड़ता था। प्रारम्भिक शिक्षा उज्जैन में हुई । 1938 में बी ए पासकर उज्जैन के मार्डन स्कूल में अध्यापक हो गए। है। 1954 में एम ए करने के बाद राजनांद गांव छत्तीसगढ़ (अविभाजित मध्यप्रदेश) के दिग्विजय कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हुए। इस जीवन यात्रा में जीवन की वास्तविकता,व्यवस्था,राजनीति और सामाजिक सरोकार ने उनके जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। जो उनकी लेखनी में स्पष्ट रूप से मुखर होकर सामने आई। राजनांद गांव उनका केवल अध्यापन क्षेत्र ही नहीं रहा वरन् अध्ययन और लेखन की भूमि भी रही। जहां से मुक्तिबोध ने राष्ट्रीय साहित्यक क्षितिज में नई चेतना के साथ दस्तक दी।
साहित्यिक जीवन–
मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनैतिक चेतना से समृद्ध उनकी कविता पहली बार ‘तार सप्तक’ के माध्यम से सामने आई, लेकिन उनका कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाया। मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल ‘एक साहित्यिक की डायरी’ प्रकाशित की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशित हुआ। ज्ञानपीठ ने ही ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ प्रकाशित किया था। इसी वर्ष नवंबर 1964 में नागपुर के विश्वभारती प्रकाशन ने मुक्तिबोध द्वारा 1963 में ही तैयार कर दिये गये निबंधों के संकलन नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ को प्रकाशित किया था। परवर्ती वर्षो में भारतीय ज्ञानपीठ से मुक्तिबोध के अन्य संकलन ‘काठ का सपना’, तथा ‘विपात्र’ (लघु उपन्यास) प्रकाशित हुए। पहले कविता संकलन के 15 वर्ष बाद, 1980 में उनकी कविताओं का दूसरा संकलन ‘भूरी भूर खाक धूल’ प्रकाशित हुआ और 2985 में ‘राजकमल’ से पेपरबैक में छ: खंडों में ‘मुक्तिबोध रचनावली’ प्रकाशित हुई, वह हिंदी के इधर के लेखकों की सबसे तेजी से बिकने वाली रचनावली मानी जाती है। कविता के साथ-साथ, कविता विषयक चिंतन और आलोचना पद्धति को विकसित और समृद्ध करने में भी मुक्तिबोध का योगदान अन्यतम है। उनके चिंतन परक ग्रंथ हैं- एक साहित्यिक की डायरी, नयी कविता का आत्मसंघर्ष और नये साहित्य का सौंदर्य शास्त्र। भारत का इतिहास और संस्कृति इतिहास लिखी गई उनकी पुस्तक है। काठ का सपना तथा सतह से उठता आदमी उनके कहानी संग्रह हैं तथा विपात्रा उपन्यास है। उन्होंने ‘वसुधा’, ‘नया खून’ आदि पत्रों में संपादन-सहयोग भी किया।
प्रमुख लेखन —
कहानी ,कविता,निबंध,आलोचना,इतिहास और कविता संग्रह।
चांद का मुंह टेढ़ा है, भूरी भूरी ख़ाक धूल तथा तार सप्तक रचनाएं प्रकाशित,मुक्तिबोध रचनावली सात खण्ड ‘अँधेरे में’,काठ का सपना,क्लॉड ईथरली,जंक्शन,पक्षी और दीमक,प्रश्न,ब्रह्मराक्षस का शिष्य,लेखन,विपात्र सौन्दर्य के उपासक,एक साहित्यक डायरी, भारत इतिहास और संस्कृति आदि।
पाठकों के लिए कवितायें —
“अँधेरे में ” के कुछ अंश गजानन माधव मुक्तिबोध
——————-
अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब ।
पहुँचाना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने को मिलेंगी बाँहें
जिनमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक।
……..
इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झांक-झाँककर देखता हूँ हर चेहरा
प्रत्येक गतिविधि,
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय-स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति!!
………
खोजता हूँ पठार …पहाड़ …समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा!
********
रात, चलते हैं अकेले ही सितारे –
रात, चलते हैं अकेले ही सितारे।
एक निर्जन रिक्त नाले के पास
मैंने एक स्थल को खोद
मिट्टी के हरे ढेले निकाले दूर
खोदा और
खोदा और
दोनों हाथ चलते जा रहे थे शक्ति से भरपूर।
सुनाई दे रहे थे स्वर –
बड़े अपस्वर
घृणित रात्रिचरों के क्रूर।
काले-से सुरों में बोलता, सुनसान था मैदान।
जलती थी हमारी लालटैन उदास,
एक निर्जन रिक्त नाले के पास।
खुद चुका बिस्तर बहुत गहरा
न देखा खोलकर चेहरा
कि जो अपने हृदय-सा
प्यार का टुकड़ा
हमारी ज़िंदगी का एक टुकड़ा,
प्राण का परिचय,
हमारी आँख-सा अपना
वही चेहरा ज़रा सिकुड़ा
पड़ा था पीत,
अपनी मृत्यु में अविभीत।
वह निर्जीव,
पर उस पर हमारे प्राण का अधिकार;
यहाँ भी मोह है अनिवार,
यहाँ भी स्नेह का अधिकार।
बिस्तर खूब गहरा खोद,
अपनी गोद से,
रक्खा उसे नरम धरती-गोद।
फिर मिट्टी,
कि फिर मिट्टी,
रखे फिर एक-दो पत्थर
उढ़ा दी मृत्तिका की साँवली चादर
हम चल पड़े
लेकिन बहुत ही फ़िक्र से फिरकर,
कि पीछे देखकर
मन कर लिया था शांत।
अपना धैर्य पृथ्वी के हृदय में रख दिया था।
धैर्य पृथ्वी का हृदय में रख लिया था।
उतनी भूमि है चिरंतन अधिकार मेरा,
जिसकी गोद में मैंने सुलाया प्यार मेरा।
आगे लालटैन उदास,
पीछे, दो हमारे पास साथी।
केवल पैर की ध्वनि के सहारे
राह चलती जा रही थी।
*****
“चांद का मुंह टेढ़ा है” की कुछ पंक्तियां –
नगर के बीचों-बीच
आधी रात–अंधेरे की काली स्याह
शिलाओं से बनी हुई
भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए
ऊँचे-ऊँचे कन्धों पर
चांदनी की फैली हुई सँवलायी झालरें।
कारखाना–अहाते के उस पार
धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे
उद्गार–चिह्नाकार–मीनार
मीनारों के बीचों-बीच
चांद का है टेढ़ा मुँह!!
भयानक स्याह सन तिरपन का चांद वह !!
गगन में करफ़्यू है
धरती पर चुपचाप ज़हरीली छिः थूः है !!
पीपल के खाली पड़े घोंसलों में पक्षियों के,
पैठे हैं खाली हुए कारतूस ।
गंजे-सिर चांद की सँवलायी किरनों के जासूस
साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम
नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे है !!
चांद की कनखियों की कोण-गामी किरनें
पीली-पीली रोशनी की, बिछाती है
अंधेरे में, पट्टियाँ ।
देखती है नगर की ज़िन्दगी का टूटा-फूटा
उदास प्रसार वह ।
समीप विशालकार
अंधियाले लाल पर
सूनेपन की स्याही में डूबी हुई
चांदनी भी सँवलायी हुई है !!
भीमाकार पुलों के बहुत नीचे, भयभीत
मनुष्य-बस्ती के बियाबान तटों पर
बहते हुए पथरीले नालों की धारा में
धराशायी चांदनी के होंठ काले पड़ गये
हरिजन गलियों में
लटकी है पेड़ पर
कुहासे के भूतों की साँवली चूनरी–
चूनरी में अटकी है कंजी आँख गंजे-सिर
टेढ़े-मुँह चांद की ।
बारह का वक़्त है,
भुसभुसे उजाले का फुसफुसाता षड्यन्त्र
शहर में चारों ओर;
ज़माना भी सख्त है !!
अजी, इस मोड़ पर
बरगद की घनघोर शाखाओं की गठियल
अजगरी मेहराब–
मरे हुए ज़मानों की संगठित छायाओं में
बसी हुई
सड़ी-बुसी बास लिये–
फैली है गली के
मुहाने में चुपचाप ।
लोगों के अरे ! आने-जाने में चुपचाप,
अजगरी कमानी से गिरती है टिप-टिप
फड़फड़ाते पक्षियों की बीट–
मानो समय की बीट हो !!
गगन में कर्फ़्यू है,
वृक्षों में बैठे हुए पक्षियों पर करफ़्यू है,
धरती पर किन्तु अजी ! ज़हरीली छिः
***
ब्रह्मराक्षस बहुत प्रसिद्ध रचना जिसने संसार को सांसारिक जीवन और मायावरी आडंबर से मुक्त कर सत्यता का बोध कराया और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया।-
ब्रह्मराक्षस / गजानन माधव मुक्तिबोध
शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी
ठण्डे अंधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की…
सीढ़ियाँ डूबी अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में…
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।
बावड़ी को घेर
डालें खूब उलझी हैं,
खड़े हैं मौन औदुम्बर।
व शाखों पर
लटकते घुग्घुओं के घोंसले
परित्यक्त भूरे गोल।
विद्युत शत पुण्यों का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर
हवा में तैर
बनता है गहन संदेह
अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके सी लगी रहती।
बावड़ी की इन मुंडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक
बैठी है टगर
ले पुष्प तारे-श्वेत
उसके पास
लाल फूलों का लहकता झौंर–
मेरी वह कन्हेर…
वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर
अंधियारा खुला मुँह बावड़ी का
शून्य अम्बर ताकता है।
बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,
व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,
हड़बड़ाहट शब्द पागल से।
गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने–
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे बराबर,
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
खूब करते साफ़,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!
और… होठों से
अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार,
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
मस्तक की लकीरें
बुन रहीं
आलोचनाओं के चमकते तार!!
उस अखण्ड स्नान का पागल प्रवाह….
प्राण में संवेदना है स्याह!!
किन्तु, गहरी बावड़ी
की भीतरी दीवार पर
तिरछी गिरी रवि-रश्मि
के उड़ते हुए परमाणु, जब
तल तक पहुँचते हैं कभी
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
झुककर नमस्ते कर दिया।
पथ भूलकर जब चांदनी
की किरन टकराये
कहीं दीवार पर,
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
वन्दना की चांदनी ने
ज्ञान गुरू माना उसे।
अति प्रफुल्लित कण्टकित तन-मन वही
करता रहा अनुभव कि नभ ने भी
विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!!
और तब दुगुने भयानक ओज से
पहचान वाला मन
सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से
मधुर वैदिक ऋचाओं तक
व तब से आज तक के सूत्र छन्दस्, मन्त्र, थियोरम,
सब प्रेमियों तक
कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी
कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गाँधी भी
सभी के सिद्ध-अंतों का
नया व्याख्यान करता वह
नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम
प्राक्तन बावड़ी की
उन घनी गहराईयों में शून्य।
……ये गरजती, गूँजती, आन्दोलिता
गहराईयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः
उद्भ्रान्त शब्दों के नये आवर्त में
हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता,
वह रूप अपने बिम्ब से भी जूझ
विकृताकार-कृति
है बन रहा
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ
बावड़ी की इन मुंडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं
टगर के पुष्प-तारे श्वेत
वे ध्वनियाँ!
सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल
सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुम्बर
सुन रहा हूँ मैं वही
पागल प्रतीकों में कही जाती हुई
वह ट्रेजिडी
जो बावड़ी में अड़ गयी।
x x x
खूब ऊँचा एक जीना साँवला
उसकी अंधेरी सीढ़ियाँ…
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।
एक चढ़ना औ’ उतरना,
पुनः चढ़ना औ’ लुढ़कना,
मोच पैरों में
व छाती पर अनेकों घाव।
बुरे-अच्छे-बीच का संघर्ष
वे भी उग्रतर
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
गहन किंचित सफलता,
अति भव्य असफलता
…अतिरेकवादी पूर्णता
की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं…
ज्यामितिक संगति-गणित
की दृष्टि के कृत
भव्य नैतिक मान
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान…
…अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना
कब रहा आसान
मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!
रवि निकलता
लाल चिन्ता की रुधिर-सरिता
प्रवाहित कर दीवारों पर,
उदित होता चन्द्र
व्रण पर बांध देता
श्वेत-धौली पट्टियाँ
उद्विग्न भालों पर
सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए
अनगिन दशमलव से
दशमलव-बिन्दुओं के सर्वतः
पसरे हुए उलझे गणित मैदान में
मारा गया, वह काम आया,
और वह पसरा पड़ा है…
वक्ष-बाँहें खुली फैलीं
एक शोधक की।
व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद-सा,
प्रासाद में जीना
व जीने की अकेली सीढ़ियाँ
चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।
वे भाव-संगत तर्क-संगत
कार्य सामंजस्य-योजित
समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ
हम छोड़ दें उसके लिए।
उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन-
शोध में
सब पण्डितों, सब चिन्तकों के पास
वह गुरू प्राप्त करने के लिए
भटका!!
किन्तु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
…लाभकारी कार्य में से धन,
व धन में से हृदय-मन,
और, धन-अभिभूत अन्तःकरण में से
सत्य की झाईं
निरन्तर चिलचिलाती थी।
आत्मचेतस् किन्तु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन…
विश्वचेतस् बे-बनाव!!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन!
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
उसकी महत्ता!
व उस महत्ता का
हम सरीखों के लिए उपयोग,
उस आन्तरिकता का बताता मैं महत्व!!
पिस गया वह भीतरी
औ’ बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!
बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ’ मर गया…
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम-विवर में
मरे पक्षी-सा
विदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी
यह क्यों हुआ!
क्यों यह हुआ!!
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुँचा सकूँ।
*********
मुक्तिबोध नई कविता के प्रमुख कवि माने जाते हैं. उनकी रचनाओं पर मार्क्सवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है. उनके काव्य संग्रह ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ और ‘भूरी-भूरी खाल धूल’ प्रमुख हैं. ‘अंधेरे में’ और ‘ब्रह्मराक्षस’ मुक्तिबोध की महत्वपूर्ण रचनाएं हैं. ‘ब्रह्मराक्षस’ के माध्यम से उन्होंने बुद्धिजीवी वर्ग के द्वंद्व और अलगाव की व्यथा का मार्मिक चित्रण किया है.
निधन —
17 फरवरी 1964 को अकस्मात पक्षाघात हुआ और अन्ततः 11सितम्बर 1964 को भोपाल मध्यप्रदेश में प्राण त्याग दिए। निवास स्थान को अब ‘मुक्तिबोध स्मारक’ बना दिया गया है.
•गणेश कछवाहा
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