कविता, पिता – संतोष झांझी
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पिता
आफिस की फाइलों में दबे
फैक्टरी के शोर से थके
डाँटते है पिता
दोस्तों से गपियाते बेटे को
वो देखकर आये हैं
फाइल दबाये
नौकरी की तलाश में
भटकते लड़कों को
गपियानें का समय नहीं
समय है प्रतियोगिता का
अच्छे से अच्छे नंबर पाकर
कुछ कर दिखाने का
पिता डाँटते है
युवा बेटी को
खुली बाहों बिना दुपट्टे के
सड़क पर जोर से हँसते
वो देखकर आ रहे हैं
सड़क पर बसों मे
होता चीर हरण
जहाँ कोई कृष्ण नहीं होता
होते है दुर्योधन
और होती है
अंधे बहरों लोगों की भीड़
तमाशबीन
अनदेखा अनसुना करते
पथराये चेहरे
आतंकित हैं पिता
डाँटते हैं
कुछ न कर पाने का
क्षोभ लिये
कवयित्री संपर्क –
97703 36177