कविता, मुकद्दर का सिकन्दर- त्र्यम्बक राव साटकर “अम्बर”
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” मुकद्दर का सिकन्दर “
कभी मुकद्दर से पूछा है,
सीधी चाल क्यूँ नहीं रहती तुम्हारी ।
कभी आड़ी, कभी तिरछी,
बदल-बदलकर होती है चाल तुम्हारी ।
करवट भी अचानक लेते हो ।
अच्छा-भला किस्मत देते हो,
अचानक ही पल्टी मार देते हो ।
अब तक तो,
किसी की किस्मत बना देते थे,
किसी की बिगाड़ देते थे ।
परन्तु अब तो इतनी क्रूरता,
समा गई है दिल में तुम्हारे ।
तुम्हारी कहर से दहशत में हैं सारे ।
कहावत भी बड़ी अच्छी,
बनाकर रखे हो तुम-
मुकद्दर का सिकंदर ।
अब ना तो किसी का मुकद्दर है,
ना ही कोई सिकन्दर है ।
कोरोना के कहर से,
सारे घर के अन्दर हैं ।
chhattisgarhaaspaas
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