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- कॉमरेड सीताराम येचुरी : देश के सर्वोत्तम हितों के लिए न्याय और गठबंधन की राजनीति के अगुआ : आलेख- हन्नान मोल्ला : अनुवाद- संजय पराते
कॉमरेड सीताराम येचुरी : देश के सर्वोत्तम हितों के लिए न्याय और गठबंधन की राजनीति के अगुआ : आलेख- हन्नान मोल्ला : अनुवाद- संजय पराते
कॉमरेड सीताराम येचुरी से मेरी पहली मुलाक़ात 1980 में हुई थी, जब मैं पश्चिम बंगाल के उलूबेरिया निर्वाचन क्षेत्र से पहली बार सांसद चुना गया था और भारत की जनवादी नौजवान सभा (डेमोक्रेटिक यूथ फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया) का अखिल भारतीय महासचिव था। उस समय येचुरी दिल्ली में स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एसएफआई) के अखिल भारतीय कार्यालय की देखभाल करते थे। हमने साथ मिलकर काम करना शुरू किया। येचुरी का राजनीति से परिचय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में हुआ था। वे लगातार तीन बार छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए। जल्द ही, उनकी गतिविधियां कैंपस से बाहर फैल गईं और उन्होंने एसएफआई को विभिन्न राज्यों में फैलाने का काम किया।
मुझे शुरू से ही यह स्पष्ट था कि येचुरी हमारी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध थे और उनमें न्याय की भावना प्रबल थी। वे अच्छा लिखते थे और एसएफआई के मुखपत्र के संपादक थे। उनके संपादन में, इस मुखपत्र ने बहुत उच्च मानक हासिल किया। 1984 में, सीताराम एसएफआई के अखिल भारतीय अध्यक्ष बने। उस समय, असम और पंजाब जैसे राज्यों में अलगाववादी आंदोलन चल रहे थे। ऐसे आंदोलनों के खिलाफ खड़े होकर, उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए जनता का समर्थन जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1980 के दशक की शुरुआत में, येचुरी ने एसएफआई और डीवाईएफआई का “सबको शिक्षा,सबको काम” का संदेश फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 15 सितंबर, 1981 को, हमने दिल्ली के बोट क्लब में एक बड़ी रैली की। यह दिल्ली की सबसे महत्वपूर्ण और यादगार रैलियों में से एक है।
45 वर्षों तक सीताराम के साथ मेरा रिश्ता गहरा होता गया और हम भारत भर में विभिन्न आंदोलनों का हिस्सा रहे। सीताराम में आंदोलनों को संगठित करने और लोगों को प्रेरित करने की लगभग अथाह क्षमता थी। इसके अलावा, उनके पास भाषण कौशल और विद्वत्ता भी थी।
सीताराम 1975 में सीपीआई(एम) के सदस्य बने। मात्र 10 साल बाद, 1985 में वे केंद्रीय समिति (सीसी) के सदस्य बन गए। उसी साल मैं भी सीसी के लिए चुना गया। 1989 में वे केंद्रीय सचिवालय के सदस्य बने, 1992 में वे पोलित ब्यूरो के सदस्य बने और 2015 में वे पार्टी के महासचिव चुने गए। वह अपनी मार्क्सवादी विचारधारा और संगठनात्मक व्यवहार के मार्क्सवादी-लेनिनवादी स्वरूप के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध थे।
जब चीन और रूस के बीच विवाद चल रहा था, या तत्कालीन सोवियत संघ के पतन के बाद असमंजस की स्थिति थी, तब उन्होंने वैचारिक दस्तावेज तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 2012 में उन्होंने पार्टी का वैचारिक दस्तावेज और उसकी व्याख्या लगभग अकेले ही सामने रखी।
लंबे समय तक वे पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’ के संपादक रहे और ‘मार्क्सवादी’ के भी। 2005 में पहली बार वे राज्यसभा के सदस्य चुने गए। बाद में वे उच्च सदन में पार्टी के नेता बने।
सांसद के तौर पर उनका हर कोई सम्मान करता था। 2017 में उन्हें सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार मिला। राष्ट्रीय राजनीति में उनकी अहमियत बढ़ती गई। आरएसएस के प्रति उनके विरोध के पीछे इस संगठन के बारे में उनकी गहरी जानकारी थी।
उन्होंने धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता पर कई किताबें लिखी हैं, जो वामपंथी विचारधारा वाले हम लोगों के लिए महत्वपूर्ण हैं। जैसे-जैसे देश में सांप्रदायिक ताकतें और उनकी गतिविधियां बढ़ती गईं, सीताराम ने सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों को एक साथ लाने और इस खतरे से निपटने के लिए प्रयास तेज़ कर दिए। उन्होंने कॉरपोरेटपरस्त, सांप्रदायिक नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ़ मौजूदा विपक्षी एकता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
यहां तक कि जब सीपीआई(एम) ने यूपीए का समर्थन किया था, तब भी सीताराम ही थे, जिन्होंने वामपंथियों की ओर से मनमोहन सिंह सरकार पर दबाव बनाया था। उन्होंने नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ लड़ाई नहीं रोकी।
सीताराम लोगों से जुड़ सकते थे और इसलिए कई गठबंधनों और गठबंधनों के निर्माण में उत्प्रेरक थे। वे गठबंधन की राजनीति के पक्षधर थे। जब हम किसान आंदोलन शुरू करने वाले थे, तो कई लोगों ने कहा कि इतने सारे संगठन एक साथ आकर आंदोलन का निर्माण नहीं कर सकते। शुरू से ही सीताराम ने न केवल मेरा हौसला बढ़ाया, बल्कि पर्दे के पीछे से जरूरी सहयोग भी दिया।
सीताराम मुझसे आठ साल छोटे थे। मैंने कभी नहीं सोचा था कि वे अचानक हमें छोड़कर चले जाएंगे। वे लोकतांत्रिक और साम्यवादी आंदोलनों के सबसे प्रेरक व्यक्तित्वों में से एक थे और रहेंगे। उन्होंने जो शून्य छोड़ा है, उसे भरना मुश्किल है। राजनीति में हम इस शून्य को भरने की कोशिश करेंगे और उस आंदोलन को मजबूत करेंगे, जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित किया था। लेकिन 45 साल के रिश्ते के बाद मेरे जीवन में जो रिक्तता पैदा हुई है, उसे कभी नहीं भरा जा सकता।
• हन्नान मोल्ला
[ •आलेख के लेखक हन्नान मोल्ला ‘माकपा’ पोलिट ब्यूरो के पूर्व सदस्य और अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं. • अनुवादक संजय पराते ‘ छत्तीसगढ़ किसान सभा’ के उपाध्यक्ष हैं. ]
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