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कहानी : उर्मिला शुक्ल
• चुटकी भर माटी
• उर्मिला शुक्ल
[ रायपुर, छत्तीसगढ़ ]
हीथ्रो एयर पोर्ट पर विमान का इंतजार करती जेनी, ऊब चली थी । विमान और – और – और लेट होता जा रहा था । लोगों ने चेताया भी था कि इस एयरलाइन्स से मत जाओ लेकिन लखी सर ने इसी एयरलाइन्स की सलाह दी । उसे लखी सर का वह कथन याद हो आया –
“ तुम हमारा अपना देश का एयरलाइन्स से जाना । इसका दो फायदा होयेगा ,एक उसमें इंडियन जादा होगा । तो तुमको सफर में ही इंडिया को समझने का मौका मिल जायेगा । दूसरा फायदा । लेट लतीफी झेलने का आदत का पड़ जायेगा । “ कहते चेहरे पर मुस्कान डोल उठी थी । उस कहन में ओरों की तरह इंडिया लेकर कोई तंज नहीं था । एक गुली -गुली सा अपनापन था।
“ लोग कुछ बी बोले लेकिन अमारा इंडिया का जवाब नाय । हमारा देश का माटी ,माटी नाय चंदन माफिक है । तबी तो कहता मैं सबको इंडिया जाना चाही । अमारा इंडिया माफिक कोई कंट्री नाय ।”
जेनी ने देखा लखी सर की आँखों में पल भर को एक चमक उभरी ओर तत्काल बुझ गयी । ‘ ओर मै ? कितना अभागा ,अपना देस छोड़ के … । और यहाँ… । ‘ सोचता मन अतीत को याद कर अकुला सा उठा । आँखों में नमी सी छलक आयी ।फिर –
“जेनी ! मेरा देस में गुरु द्क्छिना देने का चलन है । तुम मेरा खातिर बाबों से माटी माँग के लाना । चुटकी भर माटी । वो ही मेरा गुरु द्क्छिना होयेगा । लायेगी न तुम ?“
“ एस सर । मैं लायेगी । टूम्हारा गुरु दच्चना । टूम्हारा लिए लायगी, चौतकी बर माती । मै जाएगी ।जरुड़ जाएगी तुम्हारा गाँव ।” जेनी ने आश्वस्त किया ।
“एक बात और ।“ कहा फिर कुछ देर खामोशी रही । फिर – “ तुम मांदरी से जरूर मिलना ।”
जेनी ने देखा मांदरी को याद कर लखी सर की आँखों में लाल डोरे लहक उठे । अब उनके ओठ तो खामोश थे । मगर आँखें ? आँखें बहुत कुछ बोल रही थीं । जेनी ने उनके मुख से यह नाम कभी नहीं सुना था । यही नाम नहीं ,उसने तो कोई भी नाम नहीं सुना था । जाने क्या बात थी कि वो कभी अपने गाँव और अपने लोगों का नाम ही नहीं लेते थे लेकिन कभी – कभी अपने कमरे में बंद हो जाते । फिर आर्ट सेंटर मांदर की थाप से भर उठता । तब मारग्रेट बहुत नाराज होती । उसे लखी सर का यूँ भावुक होना बिलकुल पसंद नहीं था | वो नहीं चाहती थी उनका अतीत उन्हें अपने घेरे में घेर ले । लेकिन अतीत ? उससे मुक्त हो पाना कब संभव हुआ है ।
सो वह अक्सर लखी सर के सामने आ खड़ा होता और उनकी आँखें नम हो उठतीं । फिर तो मांदर ही एकमात्र उनका सहारा होता और वो मांदर की थाप में अपने को डूबो देते। फिर जब बाहर आते तो एकदम लस्त पस्त । मानों किसी यातना गृह से बाहर आए हों लेकिन वहाँ उनकी उस यातना से किसी को कोई सरोकार ही कहाँ था । बस जेनी ही थी ,जो उनकी व्यथा से अकुला उठती । सो उसकी हमदर्दी से लखी का मन भी खुलने लगा और आज ? आज तो –
“ जेनी ! मांदरी तुम्हारी माँ है । गुरु माँ ।” कहा । फिर शब्द छितरा गए ओर देर तक ख़ामोशी ही डोलती रही । फिर बहुत देर बाद छितराए शब्दों को बटोरा और – “ टुम मेरा तरफ से माफ़ी मांगना । उसका माफी बिना मैं जी नई सकेगा ।”कहती आँखें और मन दोनों छलक उठे। आज लखी ने जेनी के सामने ,अपने मन का वह कपाट खोल दिया ,जिस पर अब तक ताला जड़ रखा था।
जेनी को विदा कर लौटते लखी की गाड़ी, घढ़वा आर्ट सेंटर की ओर बढ़ रही थी लेकिन मन ? मन के पैर तो पीछे मुड़ चले थे । सो मन तीस साल का फासला तय कर , जा पहुँचा अपने गाँव……
हांदापाड़ा ! लखमा का गाँव । साल वृक्षों से घिरा एक सुंदर द्वीप ही था उसका गाँव । जंगल तो सुंदर था ही । मगर उस हरित द्वीप को और भी सुंदर बनाता था वह जलप्रपात ,जो उसके गाँव ही नहीं पूरे दंडक वन की शान था । उसकी फेनिल धारायें । उन धाराओं पर मंडराते वो बादल । उस सौंदर्य की तो कोई मिसाल ही नहीं थी। बारिश के मौसम में तो उसकी छवि देखते ही बनती थी । लगता आसमान से धरती तक जल का एक खूबसूरत वितान सा तन हो । उसे देख लखमा का मन पुलक उठता । पहाड़ की चोटी से छलाँगती धाराओं को देख उसे लगता, मानों वे मांदरी नृत्य कर रही हों ।
उन्हीं धाराओं संग अटखेलियाँ करता था उसका जीवन । तब उसके जीवन में जंगल थे । नदी थी । और थी मिट्टी । वह मिट्टी जिसमें थी नेह की नमी । उसी नेह में तो पगा था उसका परिवार । परिवार जिसमें उसकी यायो (माँ ) थी । बाबो (पिता ) थे । एक भाई था और ? और थी उसकी मांदरी । यायो ! अपने अँचरा के खूँट में उसके सारे दुःख गठिया लेतीं और बाबो (पिता ) ? उनकी छाया में ही तो पनपी थी उसकी कला । वह कला जो पूरे बस्तर की पहचान थी । घड़वा कला (टेराकोटा ) की एक -एक बारीकी ,उसके एक – एक रग रेशे को समझाया करते थे बाबो । वो बताते कि खाँचा बाँधने के लिए लता के किस हिस्से को लेने से खाँचे का आकार सुंदर उठान लेता है । वो कहते –
“ देख बेटा ! एक बात गंठिया ले । जेतना सुंदर खाँचा बनेगा ,मूरत बी उतना सुंदर बनेगा । “
उसने उनकी वह सीख गाँठ बाँध ली । तभी तो उसकी कला हांदापाड़ा को लाँघ भोपाल और दिल्ली जा पहुँची थी । भारत भवन और कला निकेतन ने उसे कला गुरू बनने का नेवता भी दिया था ।मगर अपने बस्तर से उसका जुड़ाव इतना गहरा था कि उसने वह नेवता ठुकरा दिया । एक छोटा भाई भी था । भीखमा । उसके बिना तो उसकी कला अधूरी ही थी । वो तो उसका दाँया हाथ ही था। और मांदरी ?
मांदरी की तो बात ही और थी । आँच में तपे ताम्बे सी देह और मांदर सी ठनकती आवाज । यह एक संयोग ही था कि उसका नाम मांदरी था और पहली बार वह उसे मांदरी नाच में मिली थी । लखमा ने मांदर की ताल से कदम मिलाती अल्हड़ मांदरी को देखा, तो देखता ही रह गया । उसका मन किया कि वह भी नाच में शामिल हो जाय । मगर वह मांदरी नृत्य था | उसमें लडकों के लिए मांदर बजाना जरूरी था ओर उसके पास मांदर था ही नहीं । मांदर के बिना नृत्य में शामिल होना तो संभव ही नहीं था ।सो वह इंतजार करने लगा कि कब नाच खत्म और .. । मगर नाच का सिलसिला तो थम ही नहीं रहा था मांदरी खत्म होते ही रेला नाच शुरू हो गया –
“ रे रेला आ यो ,रेला आ रेला आ
रे रेला आ, रेला रेला ए
ढ़ोंडरा ना दिब्बा लोने वच्छिंद्रे गाली बाना
रे रेला आ रेला रेला रे रेला ।
यह एक वर्षा गीत था । सो जंगल की धारासार बारिश की छमक मोटियारिनों के कदमों में उतर आई । रेला नाच के बाद चेलक और मोटियारिनों (युवक और युवतियों ) ने एक प्रणय गीत छेड़ दिया । फिर तो उनकी भंगिमायें बदलने लगीं। छेड़छाड़ वाले इस गीत ने उसके भीतर तूफ़ान सा उठा दिया ओर उसका मन बेकाबू सा हो उठा । मगर मांदरी ? उसके मन से बेखबर मस्ती में झूम रही थी । फिर गीत में नई – नई कड़ियाँ जुड़ने लगीं और उसके इंतजार की घड़ियाँ और लंबी होती चली गयीं । फिर भी वह हताश नहीं हुआ । उसने तो ठान लिया था कि कैसे भी हो, आज बात तो करनी ही है । सो नाच खत्म होते ही उसके सामने जा खड़ा हुआ –
“ ये सुन ! अमारा नाम लखमा । तुमारा नाम ? “
“काहे? नाम जान के का करेगा ? “मांदरी ने उसे थहाती नजरों से देखा ।
“ अइसेच । जान – पिचान करने को । ”
“ मेरे को नइ करने का जान पिचान । “ कहा और उस ओर चल पड़ी, जिधर टिकली ,फुंदरी और कँघी वाले पसरे (जमीन पर लगी दुकान) थे |
लखमा को ऐसे रूखे जवाब की उम्मीद नहीं थी । सो कुछ देर अकचकाया सा खड़ा रहा । फिर ‘अइसे तो काम नइ चलने का । ‘ सोचा और चल पड़ा उसी ओर । एक पसरे पर बस्तरिया कँघी दिखी ,तो रुककर मोलियाने लगा । यूँ तो वह कँघी मोलिया रहा था ।मगर उसके कान उस पसरे की ओर लगे थे , जहाँ वह एक लाल फुंदरे (बालों में गूँथने का चुटीला ) को मोलिया रही थी । कुछ देर बाद उसने फुंदरे को रख दिया और आगे बढ़ गयी । लखमा ने गौर किया फुंदरा छोड़ते हुए, उसके चेहरे पर उदासी उतर आयी थी । वह तुरंत उस पसरे पर जा पहुँचा । बिना मोलियाये फुंदरा खरीद लिया । फिर अपनी पसंद की एक कँघी खरीदी । ‘ अमारा पुरखा लोग केतना अच्छा चलन चलाया के बिना कुछ बोले , कँघी दे के मन का बात बता सकते ।आज मैं बी उसको ये कँघी…. ।’ सोचते हुए रइचुली (झूला ) की ओर बढ़ गया ।
रइचुली (झूला ) के इर्दगिर्द बहुत सी मोटियारिनें अपनी पारी का इंतजार कर रही थीं । लखमा की नजरें उसे तलाशती रहीं । फिर तो उसे खोजते हुए पूरी मड़ई घूम आया लेकिन वह कहीं नजर नहीं आई । उदास क़दमों से वह अपने पसरे की ओर बढ़ा, तो एकाएक मन लहक उठा । वह उसके पसरे पर खड़ी एक हिरण को निहारे जा रही थी ।वह हिरण इतना जीवंत था कि लगता था मानों अभी कुलाँचे भर उठेगा |
“ केतना दाम?”
“ पच्चीस टोंगा (रुपये) । “ पसरे पर बैठे लड़के ने कहा ।
“ बहुत दाम बोलता । “
“ दाम तो सहीच बोला । बनाने में बहुत मिहनत लगता न । फेर बी बोल तू केतना बोलती । “
“आवाज सुन वह पलटी -“ तू इहाँ बी ? अऊ बोल तो अइसे रहा ,जइसे तूने बनाया इसको ?
“ मैं बोलूँ के मैने बनाया तो ? “
“ कब्भी मू देखा अपना ? नइ न ? जा नद्दी में देख के आ । “
पलट कर जाने लगी ,तो लखमा ने बढ़कर राह रोक ली –
“ बिसवास नइ होता न ? चल सरत लग जाय ।तू काल आना मैं तेरा मूरत बनाएगा ।”
मांदरी ने उसे गौर से देखा -“ अच्छा ! तो तू मेरा मूरत बनाएगा ?“ और फिक से हँस पड़ी ।
उस हँसी से फूटते उपहास ने उसे इस कदर तिलमिला दिया कि उसने उसकी बाँह पकड़ ली “तू का सोचता मैं गप मारता ?अब तो तेरे को जरूरे आना पड़ेगा । तेरे को बूढ़ा देव का किरिया । “
मांदरी सोच में पड़ गयी । बूढ़ा देव का किरिया । उसके देव बूढ़ा देव । उनकी कसम कोई साधारण कसम तो नहीं थी ।
“ बोल किदर आना है ? “
“ वो उदर का जंगल में । नदी किनारे । “
अब उसकी आवाज में कुछ नरमी थी । मांदरी ने बुझे मन से हामी भर ली।
‘ बहुत हरियर और लचकीला कमचिल बनाना होगा । एकदम उसका देह माफिक । अउ डोरी का लता । उसको तो एकदम चेम्मर होना चाही । एक बार लपटे तो फेर …. ।’ रात भर यही सब सोचता रहा । बनने वाला खाँचा साधारण तो था नहीं । सो बड़े बिहनिया निकल पड़ा ।
वसंत का मौसम । सारा जंगल फूलों से आच्छादित था । यूँ तो वहाँ सभी रंग मौजूद थे । मगर नदी के किनारे लाल और पीले फूलों की बहार थी । सघन वन के खूब भीतर बहती नदी । साल और सागौन की शाखों पर झूलती लतायें, उसके भीतर तक झुक आयी थीं । लग रहा था जैसे वे अपनी अपनी सखी को रोककर, कुछ बतियाना चाहती हों ।मगर नदी ? वह तो इतनी उन्मत्त थी कि मानों सलफी (बस्तर का नशीला पेय ) पी के मता गयी हो । सो उसकी उन्मत्त तरंगें एक ऊँची चट्टान से टकराकर जोर से उछलतीं और खिलखिलाकर लौट पड़तीं । ‘ इहाँ ये चट्टान उपर, वो तिरिछ होके बैठेगा तो …..हाँ ये जघा सही रहेगा । ’ सोचा । फिर जंगल के और भीतर जाकर लताओं के तने और बाँस काटा । बाँस की पतली – पतली क्मचिलें बनायीं ।
अब उसे मांदरी का इंतजार था । रह- रहकर उसकी नजरें पगडंडी पर जातीं और निराश हो लौट आतीं । सूरज आसमान में चढ़ आया । जब वह दहक मारने लगा तो – ‘ साईद वो नइ आएगा । मेरे को लगा बूढ़ा देव का किरिया से वो ..फेर ।’ सोचा और उदास कदमों से लौट चला । अभी गाँव की ओर मुड़ ही रहा था कि –
“ ये सुन ! थोरिक थम तो।” पीछे से आती आवाज से बढ़ते कदम थमके । मुड़कर देखते ही मन भँवरे सा गुंजार उठा ।
सलमा सितारा वाली साड़ी में लिपटी मांदरी उसके करीब आ खड़ी हुई । भौंरे ने फिर गुंजार मारी । मगर उसने बरजा ‘अब्बी नई । अब्बी धीर धरने का ।’
“ मेरे को देरी हो गया । वो महुआ बीनने को गया था न । “
“ देरीच नई अब्ब तो बहुते देरी हो गया । तू महुआ इदर बी तो बीन सकती न ? देख कतना रुख है इदर?” अपने शब्दों में रुखाइ भरी?
“ हव ! मैं काल इदरी आयेगी । “
वह जाने को पलटी तो भँवरे ने टोहका दिया –‘अइसेच जाने देगा क्या ? रोक न उसको और – “थोरिक थम न । चल मैं आज तेरे को वो जघा देखाता । जिहां तेरे कू आना …। “
“ तू मेरे को जघा देखायेगा ! मैं जानती नइ का ? येही नद्दी संग खेल के मैं मोटियारी होइ है । “
“ अरे नइ । मैं अइसा नइ बोला रे । मैं जानता तू सब जघा को जानती ।मैं तो तेरे को घड़वा के बारे में बताना माँगता ।ताकि काल तू आये तो मै मूरत …. । “ उसने अपने बचाव में कला की ओट ली ।
“ अच्चा ये बात है । चल फेर उधरी चल । मेरे को वो जघा बहुते पसंद । तेरा नाम का रे ?“ अब वह एकदम सहज हो गयी ।
“ मड़ई में बताया था न ? भुला गयी ? लखमा नाम है मेरा । तेरा नाम ? “
“मांदरी । “
मांदरी खुली तो बातें भी चल निकलीं । गाँव , घर, परिवार ,समाज और घोटुल की बातें ।घोटुल की बात चलते ही लखमा के मन में कौंधा – ‘ क्या ये गोटुल जाती है ?गोटुल जाने वाली का अपना जोड़ी बी तो होता । क्या इसका बी जोड़ी … ? ‘ सोचती नजरों ने उसमें कुछ थहाया । ‘अइसा लगता तो नइ के … । ‘ उसका मन किया पूछे । मगर ‘ नइ आज पूछता । जब मेरा मया में बंधा जाएगा तब पूछेगा । ‘
“ सुन काल अइसे मत आना । माने ये चकमक लुगरा ,पोलखा पिहन के नइ आना । “
“ फेर ? “
“ अपना जुन्ना बाना में आने का । बस्तरिया लुगरा में । “
कहना तो चाहता था कि पुराने जमाने की तरह बिना पोलखा के आना लेकिन उसका मड़ई वाला वह तेवर याद हो आया । सो कहा नहीं ।
लखमा को कल का इंतजार था | जैसे तीस दिन बीता । रात आयी । वासंती मौसम था ।उस पर पुन्नी (पूनम) की रात । विकलता चरम लाँघ गयी तो बाहर निकल आया । जंगल , डोंगरी,(पहाड़ी ) रुख राई सब चाँदनी में नहाये हुये थे । उसे पूनम की रात बहुत भाती थी । मगर उस रात कुछ नहीं भा रहा था । उसे तो बस रात के चले जाने का इंतजार था । मगर रात अनचाहे मेहमान सी ठहर हुई थी । वह अपनी खोली में चला गया | नीद तो नहीं ही आनी थी । सो कभी इस करवट ,तो कभी उस करवट करते ,लखमा को मुर्गे की उस बाँग ने राहत दी ,जो उसे पसंद ही नहीं थी । पहले मुर्गा जब भी बाँगता ,उसका मन करता जाकर उसकी गर्दन ही मरोड़ दे । मगर उस रात “ कुकड़ू कू उ ऊ । “ का स्वर उसे कोयल की कूक सा लगा । उसे सुनते ही वह झोंपड़ी से बाहर आ गया । आकाश की ओर नजरें उठीं । मगर उसने चाँद को न देख सुकतारा को देखा । उसे चमकते देख तसल्ली सी हुई । अपनी उपेक्षा देख चाँद ने उलाहना दिया -“ अच्छा अपना मया के चंदा खातिर ,तू मेरे को भी भुला दिया ? “
“ नइ रे अइसा नइ है । तेरे को कइसे भूलेगा मैं । अगला पुन्नी को मैं अपना चंदा संग तेरेच छाँव में रहेगा । पक्का । “
“ अरे लखमा ! तू अकेला क्या बड़बड़ करता ? “
“ कs कुछु नइ । “ बाबो की आवाज सुन लखमा हड़बड़ा सा गया ।
“ अब्भी बिहान नइ हुआ । जा सूत जा । ”
“बाबो ! मेरे को थोड़ा बाहिर जाने (शौच ) जइसा लगता । मैं होके आता । ” उसने बहाना बनाया और चल पड़ा जंगल की ओर ।
महुए का रसीला मौसम था । फिजा टपकते महुओं की मादकता से सराबोर थी । कोई और समय होता ,तो वह रुककर रसभरे महुये का रस लेता ।मगर उस दिन तो महुये से भी गहरी मादकता का इंतजार था ।सो सीधे नदी किनारे जा पहुँचा । कल वाली कमचिल और लतायें रखी थीं । ‘मांदरी का मूरत खातिर तो ताजा कमचिल चाही । एकदम हरियर बिलकुल उसका देह माफिक । ’ सोचा और ताजी कमचिल बना लाया । जंगल के और भीतर जाकर ताजी लतायें भी तोड़ लाया ।
इंतजार के पल जब और आकुल हुए ,तो नदी में कूद पड़ा और विपरीत दिशा में तैरने लगा । उफनती लहरें उसे अपने संग बहा लेने को जोर मार रही थीं ।मगर वह उसके जोर को अपने बाजुओं में भर, उसके भीतर धँसता जा रहा था । देर तक उसके संग अठखेलियाँ करने के बाद बाहर आया । देखा मांदरी सामने थी ।बिलकुल उसकी चाहत की तस्वीर बनी ।पोलखा रहित बस्तरिया लुगरा ने ,बैलाडीला की चोटियों जैसे उसके उभार को और उभार दिया था ।उसकी नजरें उन चोटियों पर ठहर जाना चाहती थीं । मगर उसने उन्हें सम्हाला ।और –
“अरे ! तू कब आया ? “
“ बेरा हुआ आके।”
“ मेरे को बुलाया काहे नइ । “
“ तू नहाने में मस्त था तो…. ।”
“ तू तो एकदमेच बही (पगली ) है रे। चल उधर वो फत्थर पे चलते ।” वह चट्टान की ओर बढ़ चला ।
“ तू अइसेच रहेगा ?”
मांदरी ने कहा तो उसे याद आया ,वह अब तक लंगोटी में ही है ।
“तेरे को देखा तो सब भुला गया । मैं बस अब्भी आया । “
मूर्ति बनाने के लिए उसने, मांदरी को उस चट्टान पर कुछ इस तरह लिटाया कि उसकी भंगिमा इतनी मोहक हो उठी कि वह देर तक अपलक निहारता ही रहा ।
“का रे ? अइसा का देखता ?”
मांदरी ने टोका तब होश आया । फिर उसने हरी कमचिल को उसी कोण में झुकाया, जिस कोण में वह लेटी हुई थी । कमचिलों को लता डोर से बाँध ,उसका खाँचा बनाने में जुट गया ।फिर तो कब दिन चढ़ा , कब शाम आई । उसे पता ही नहीं चला | शाम गहराने लगी ,तब मांदरी ने टोका –
“ रात भर इदरी रहने का है का ?”
“ अरे ! मेरे को टेम का तो पता नइ लगा | ”
उसने खाँचे को झाड़ियों के पीछे छिपाया और दोनों चल पड़े |
“ काल बी अइसेच आने का है का ? ”
“हो । जब तलक मूरत पूरा नइ होता ।अइसेच आने का?”
मांदरी के मुख पर चिंता की झाँई देख – “काहे कोनो बात है का । “
“नइ बात त नइ है । फेर आज यायो पूछा, के मैं अइसा जुन्ना चलन का लुगरा पहिर के कहाँ जाती ?“
“ फेर ? “
“ मैं का बोलता । बोला अइसेच मन किया तो । ”
“ फेर त मुस्किल होगा । तू अइसा करना काल ये लुगरा को संग लेके आना । इहाँ आके पहिर लेना।”
“ हव । मैं लुगरा संग लायेगी । “
मांदरी लुगरा और मालायें साथ लेकर आने लगी । तिरछ होके लेटने से मालायें अक्सर उलझ जातीं । लखमा उन्हें सुलझाता । ये क्षण बहुत नजदीकी क्षण होते । इतने नजदीकी कि मांदरी की गमकती देह और उसकी गर्म साँसें उसके भीतर उतरने लगतीं ।इन क्षणों में खुद को सम्हालना मुश्किल हो जाता और उसका मन भटक – भटक जाता । मगर वह अपने मन को बरबस रोकता । वह महसूस रहा था, इन क्षणों में अब मांदरी की चाहत भी होती कि .. । फिर भी उसे उसकी पहल का इंतजार था ।
“काल से नइ आने से बी चलेगा । बस इसको थोरिक सुन्दराना तो बाकी है।मैं कर लेगा।”
खाँचा पूरा होने की बात सुन , पलांश भर मांदरी के मुख पर, उदासी की झाँई सी उतर आयी । फिर भी उसने लखमा को ऐसा कोई संकेत नहीं दिया ,जिससे उसके मन की थाह लगती । लखमा का मन दरक गया । हर दिन की तरह वे उस दिन भी अपने – अपने मोड़ मुड़ गये । बीते दिनों में लखमा की रातें सपनों से भरी होतीं ।पुआल पर लेटते ही सपने आँखों में घमाचौकड़ी मचाने लगते । मगर उस रात ? सारे सपने गुमसुम से दुबके हुए थे ।मुर्गे ने बाँग देकर बिहान होने की सूचना दी । फिर भी वह लेटा ही रहा । जाने का मन ही नहीं हो रहा था ।फिर अनमन सा उठा और चल पड़ा । खाँचा नदी के किनारे पड़ा था । पिछली शाम खाँचा झाड़ी में छिपाना भूल गया था । लखमा उसके पास जा बैठा । उसे देर तक यूँ ही निहारता रहा ।
“ये तो कतना सुंदर दीखता । ”
“तू ? ”
लखमा की नजरें मुड़ीं ,उठीं और उसके मुख पर जा ठहरीं । सूरज की सुनहली किरणों ने उसके ग्रेनाईटी रूप मेँ पीताभ रंग भर दिया था । उस पर उसका तिरिछ खोपा (जूड़ा )। लखमा को लगा जैसे वह दुल्हन हो ।तेल हल्दी से झलमल – झलमल करती दुल्हन । उसके मन में आया कि वह उसके जूड़े में वो कँघी खोंच दे । फिर ‘ नइ अभी नइ।’ सोचकर मन को रोक लिया ।
“ का रे ! तेरे को का लगा ? मैं नइ आयेगी? कइसे नइ आती मैं ? जो काम सुरू किया उसको पूरा करना जरूरी होता की नइ ? चल अब जल्दी से इसको पूरा करते । मैं लुगरा पहिर के आती ।”
वह झाड़ी की ओर बढ़ी फिर कुछ थमकी । पलट कर उसकी ओर कुछ ऐसे देखा कि…. ?लखमा ने लपककर उसका हाथ थाम लिया । फिर हौले से उसे अपने और करीब ले, उसके जूड़े में वो कँघी खोंच दी । कुछ देर निहारता रहा उसे । फिर उसके कान की लव पर अपने होठ रखे , तो वह एक झपाटे से पलटी और नागिन सी बलखाकर लिपट गयी । फिर तो उस दिन उसकी मालायें बार – बार उलझतीं रहीं और लखमा उन्हें सुलझाता रहा । बैलाडीला सी उसकी ऊँचाई और गहराई मेँ डूबते उतराते दोपहर ढल चली । फिर दिन भी ढल गया । लखमा ने आसमान में इठलाते चाँद देख कर मिलकी (आँख ) मारी ।फिर अपने चाँद की चाँदनी में डूबता चला गया ।
खाँचा बन गया । उसकी एक – एक गढ़न में मांदरी थी । जैसे वह खुद ही उसमें समा गयी हो ।वह जानती थी कि यह मूर्ति नहीं । मूर्ति का खाँचा ही है । सो जानना चाहती थी कि अब आगे क्या होगा ।
“ तू खाँचा तो बना लिया । अब मूरत ? कइसे बनायेगा ? ”
“थोड़ा दिन इसको यही राखेगा ।”
“फेर?”
“ फेर मैं इसको घर लेके जायेगा । इसपे छुही माटी लेप करेगा । फेर आग में पकायेगा। जैसा माटी का बरतन पकाते न वैसा ।”
“ फेर इसको मड़ई में बेच देगा । “ मांदरी की आँखें उदास हो आयीं ।
“ नको ।अइसा कइसे बोला तू ? तू मेरा करेजा है रे । तेरे को मैं बेचेगा ? नाय अइसा कब्बी नइ होयगा ।मैं तो इसके सँग – सँग तेरे को बी अपना घर ले जाएगा ? हरदी लेप के ।समझा ?” कहते लखमा ने उसे अपने मेँ समो लिया ।
लखमा खाँचा को घर ले गया । उस पर पीली मिट्टी की परतें चढ़ायीं । आँच में पकाकर उसे एक खूबसूरत मूरत में ढाल दिया । मगर मांदरी ? उसका इंतजार, इंतजार ही रह गया ।लखमा की हल्दी नहीं चढ़ी उसकी देह पर । उसके हिस्से की हल्दी में चूना जो पड़ गया था । मार्गरेट नाम के चूने ने उसकी हल्दी का रंग ही बदल दिया और लखमा का भी । फिर तो मांदरी की मूरत सिर्फ बिकी ही नहीं ,बाकायदा नीलाम भी हुई । मांदरी की वही मूरत अब लन्दन आर्ट गैलरी की शान थी ,जहाँ लोग पाउंड देकर उसकी देह को छूते ,निहारते और आगे बढ़ जाते ।
लखमा ? वह अब बस्तर का लखमा नहीं । लखी साइमन था । यूके घढ़वा आर्ट का प्रोपरायटर । पद ,पैसा और प्रतिष्ठा सब कुछ था उसके पास । लेकिन सुकून ? सुकून नहीं था । सब कुछ पाने के बाद भी उसे लगता, उसने अपना सब कुछ खो दिया है । ‘ मैं वो मूर्ति संग बस्तर से लंदन आ गया । फेर मेरा देस ,मेरा बस्तर और उसका माटी ? वो माटी का माटीपन तो वहींच छूट गया । मैं ही छोड़ आया सब ? तब तो मेरा ऊपर नसा चढ़ा था । आज लगता के धोका दिया मैं ।अपना देश को । अपना माटी को और मंदारी को । फेर तब ! तब तो मेरे को खाली मारगेट देखाई देता था । फेर अब तो वो … । ‘सोचते लखमा की आँखों में पहले वाली मारग्रेट उतरने लगी …….
अपने दोस्तों के साथ भारत भ्रमण पर आयी मारग्रेट को बस्तर का हांदावाड़ा और लखमा दोनों भा गये थे । मगर लखमा का मन तो मांदरी में रचा बसा था । सो मारग्रेट के प्रणय निवेदन को नकार दिया उसने । लेकिन मारग्रेट तो मारग्रेट थी । वह जीवन को जीवन की तरह नहीं , जिद की तरह जीती थी । सो ठान लिया कि वह लखमा को हासिल करके रहेगी । इस जिद में उसका साथ दिया उसके पाउंड ने । गरीब आदिवासी परिवार ,जो रुपये के लिए तरसता था , उसके लिए तो पाउंड का सपना भी सपना था । मगर वही पाउंड जब हकीकत बन यायो की हथेली पर आ विराजा तो… ! मारग्रेट ने अपना वालेट यायो की हथेली पर रख दिया । यायो – बाबो खुशी से कुलक उठे । लखमा को मारग्रेट का यह प्रस्ताव अच्छा नहीं लगा लेकिन यायो बाबो तो राजी थे । सो …. ।
फिर तो मारग्रेट ने उसके घर को अपना डेरा ही बना लिया । अब तो चौबीसों घंटे का साथ था । सो कभी कला की बारीकी समझने के बहाने ,तो कभी जंगल घूमते हुए , वो करीब आने की कोशिश करती । लखमा उसकी जिद बन गया था । अपनी जिद के लिए वह कुछ भी कर गुजरने को कटिबद्ध थी ।सो उसने देह को हथियार बना लिया । वह जंगल के एकांत में कुछ ऐसा करती कि लखमा के लिए अपने को सम्हालना मुश्किल हो जाता । कहते हैं देह की आँच में लोहा भी गल जाता है ।फिर लखमा तो पुरुष था । सो मारग्रेट ने मांदरी की हल्दी हथिया ली । यायो – बाबो ब्याह के लिए राजी नहीं थे । मगर अब लखमा राजी था । सो बस्तरिया रीत रिवाज से ब्याह हुआ और लखमा की दुल्हन बन गयी मारग्रेट।
यह सब मारग्रेट के एक थ्रिल था । लेकिन लखमा ? वह तो मारग्रेट के रंग में इस कदर डूबा हुआ था कि अपनी माटी और मांदरी दोनों को छोड़ उसके देश चला गया । सुनकर लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ । लखमा जैसा माटी का मितान , जिसने दिल्ली सरकार का प्रस्ताव तक ठुकरा दिया था। वही लखमा अपना गाँव ही नहीं देश भी छोड़ गया ! यायो – बाबो के दुख का तो ओर छोर न रहा ।वो उस क्षण को कोसते रहे ,जब उन्होंने मारग्रेट को अपने घर में पनाह दी ।
मारग्रेट के देश जाकर लखमा का कितना कुछ बदल गया था । सबसे पहले बदला था मारग्रेट से उसका रिश्ता । अब वह पत्नी से मालकिन बन गयी थी। लंदन आर्ट सेंटर मारग्रेट का था और लखमा उसमें काम करने वाला कामगर | मगर इसका अहसास कहाँ था उसे । वो जवान दिन थे ।सो उन दिनों कुछ नहीं महसूसा उसने । मगर अब ? आँखों में उभरता है एक द्वार ,जो उसके दासत्व का प्रवेश द्वार था । बहुत खूबसूरत । जगर मगर करता द्वार लेकिन भीतर? रौशनी के आवरण में लिपटा था स्याह अँधेरा । इतना स्याह कि उसमें उसका बहुत कुछ बिला गया । उसका वह नाम जो उसके परिवार से नाभि नाल आबद्ध था | उसके बूढ़ा बाबो सखमा ने दिया था यह नाम ! सो यह केवल नाम नहीं था ,उसका अस्तित्व था । पहचान था उसकी ।
यहाँ आकर उसकी वही पह्चान छिन गयी थी । छिन गया था उसका अपना गाँव ,जो उसके भीतर धड़कता था और छिन गया था उसके हृदय का पानी । वह पानी जिससे उसकी कला की माटी नम होती थी । सो सूखकर दरकने लगी थी उसकी कला ।और अब तो उस दरकन के भीतर करकन भी भरने लगी थी ।सो वह करक लखी को हरदम बेचैन किये रहती । वह सोचता – ‘ मेरी माटी,मेरे बाबो और मेरी मांदरी ने मेरे को इतना कुछ दिया । मगर मैंने ?क्या दिया उनको ? उनकी ही आह लगी है मेरे को ।तभी तो यहाँ आने के बाद कुछ बड़ा रच नहीं पाया । ‘ उसका मन छटपटा रहा था कि वह एक बार ,बस एक बार उनसे … । वह उऋण होना चाहता था अपनी माटी के उस ऋण से, जिसने उसे कुछ गढ़ना सिखाया था । यायो बाबो के स्नेह का तो कोई प्रतिदान ही नहीं था लेकिन माफ़ी तो माँग ही सकता था । और मांदरी ? उसके साथ किए धोखे की कोई क्षमा थी ही नहीं । फिर भी वह चाहता था कि एक बार … । बस एक बार उससे मिलकर … । मगर…?
उसे मालूम था उसके लिए यह मुमकिन नहीं । इसीलिए तो चाहता था कि जेनी इंडिया टूर के साथ ही उसके गाँव भी जाय । मांदरी को उसकी मूरत की अनुकृति सौंप ,माँग लाए उससे बूँद भर पानी । लखी जेनी से कह सकता था कि वह मांदरी से उसकी ओर क्षमा से माँग ले लेकिन उसने क्षमा की चाहना नहीं की । वह जानता था पानी का मर्म । सो उसने अपनी गुरु दक्षिणा में इसे ही माँगा ताकि लौट सके उसकी कला की खोई नमी ।लौट सके उसके भीतर का माटीपन ।
“लखी सर ! मांदरी माँ अबी बी तुमारा वेट करता?”
“नो । अमारा लोग में औरत लोग वेट नइ करता । अमारा उदर आदमी औरत सब बरोबर होता । कोई किसी का खातिर अपना जिनगी खराब नइ करता । फेर मेरा जइसा धोका देने वाला का वेट काय को करेगा ।”
“अटेंशन प्लीज !…… । बोर्डिंग की घोषणा से जेनी की तंद्रा टूटी और जेनी इंडियन एयरलाइन्स के काउंटर की ओर बढ़ चली ।
*
इंडिया आकर जेनी विविध रंगी भारत के रंगों में खो ही गयी । अब तक उसने सिर्फ एक त्रिवेणी के बारे में ही सुन रखा था । गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी लेकिन यहाँ ? यहाँ तो धर्म ,दर्शन और कला की त्रिवेणी के समानांतर और भी न जाने कितनी – कितनी त्रिवेणियाँ प्रवाहित थीं । सो वह पहले कहाँ जाय ? यह तय कर पाना मुश्किल हुआ तो उसने भारत दर्शन की किताब ले ली । उसमें राजस्थान के सौंदर्य का इतना आकर्षक विवरण था कि वह राजस्थान की ओर चल पड़ी । वहाँ पहुँचकर तो अकचक ही रह गयी ! वहाँ की फिजा में एक ओर महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान का शौर्य और त्याग था ,तो दूसरी प्रेम की पराकाष्ठा को छूती प्रेम कहानियाँ थीं ।
राजा रतनसेन और रानी पद्मावती की प्रेम कहानी सुन जेनी को एकबारगी विश्वास ही नहीं हुआ। कोई किसी को देखे बिना ,कैसे इतना प्रेम भी कर सकता है कि उसके लिए अपना राज पाट और पत्नी सब कुछ छोड़कर निकल पड़े । और पद्मिनी ? उसका रत्नसेन के लिए जौहर कर लेना ! कोई किसी के लिए कैसे…! दूसरी ओर मीरा का प्रेम ! वह तो उसके लिए और भी अविश्वसनीय था । मीरा का प्रेम जिस उद्दात भावभूमि पर था । उस तक तो उसकी कल्पना की भी पहुँच नहीं थी । वह वहाँ तक कभी पहुँचती ही नहीं यदि उसे हरि न मिलता । हरि ने उसे मीरा ही नहीं, राधा कृष्ण और गोपियों के प्रेम के बारे मेन भी बताया । उसने इस्कान समुदाय से अपने जुड़ने और हेरिसन से लेकर हरि बन जाने की कथा भी सुनायी । फिर राधा कृष्ण और गोपियों की प्रेमपगी कहानी कुछ इस अंदाज में बयाँ की कि जेनी उसके साथ निकल पड़ी वृन्दावन की ओर ।
वृन्दावन ! अब वो वृन्दावन नहीं था, जिसे सूरदास ने रचा था । जहाँ कृष्ण राधा का मिलन महारास था और उनका बिछोह भ्रमरगीत । अब ? अब तो राधा कृष्ण के प्रेम भी एक बाजार था । उस बाजार में कृष्ण की पटुकी और राधा की चोली थी । प्रेम अब आत्मा का नहीं, देह का वायस था । भोग बनकर रह गया था प्रेम । सो राधा कृष्ण का नाम अब आस्था नहीं एक थ्रिल था ,जो लोगों की देह में अनोखी झनझनाहट भर रहा था । जेनी ने देखा एक गली में एक हरियल सैलाब उमड़ता जा रहा था।
“व्हाट इज दिस ? ”
“ टुडे हरियाली तीज । बिग फेस्टिवल । आनंद उत्सव ।”
जेनी ने देखा उस आनंद उत्सव को , जहाँ मस्ती का सैलाब अपने पूरे उफान पर था । नाच गान और उछाह के साथ अध्यात्म की चासनी में पगा सा । उसका देश न होते हुए भी उसे अपने देश जैसा ही लगा । सो उसने दूकान से गोपी ड्रेस और पटुकी खरीदी । राधा का वेश धरा और हरि का हाथ थाम उस सैलाब में समा गयी । मन्दिर को जाने वाली सँकरी सी गली और उफनता जनसागर ! जहाँ आदमी के हिलने डुलने की भी जगह नहीं थी, वहाँ लोग एक दूसरे की देह से रगड़ खाते हुए भी नाचने में संलग्न थे । वहाँ स्पर्श कुस्पर्श का कोई फर्क ही नहीं था । स्त्री पुरुष का भेद ही मिट गया था । मस्ती में डूबता उतराता समूह मंदिर के प्रांगण में पहुँचा । वहाँ पहुँचकर और भी लोग शामिल हो गये । पुजारियों और युवा कथा वाचकों के नृत्य ने तो समा ही बाँध दिया ।
रात भर नाच गान की मस्ती चलती रही । बीच – बीच में प्रसादी और ठंडाई ( भंग मिला दूध) आती । लोग प्रसादी खाते ,ठंडाई पीते और फिर नाचने लगते । जिस जोड़े की देह उफान मारती वह अपने ठिकाने का रुख करता । सो जेनी और हरि भी ठिकाने पर जा पहुँचे । फिर तो बस प्रेम था और थे वे । फिर यह रोज की चर्या ही बन गया । प्रेम की यमुना में अवगाहन करती जेनी को याद ही नहीं रहा कि उसे हांदापाड़ा भी जाना है ।
लखी इंतजार में था । सो नजरें हर पल उसके फोन के इंतजार में रहतीं लेकिन इंतजार के दिन थे कि बीताए न बीत्तते । जब बहुत दिनों तक जेनी का फोन नहीं आया तो ‘ मैंने हांदापाड़ा का ठीक – ठीक एड्रेस दिया था । गाँव का मैप बी दिया था । पहुँचने में दीकत तो नइ हुआ होगा । फेर ? कहीं मेरा गाँव ,मेरा हांदापाड़ा चेंज तो नइ हो गया । ये तो गोलोबल बिलेज का जमाना है ,तो मेरा गाँव बी तो बदल गया होगा । बेचारा जेनी गाँव खोज – खोज के परिसान होगा । मैं आज रात फोन करेगा । फेर मारगेट ? वो तो मेरा संग रहेगा । फेर बी कैसा बी करके ,आज मैं फोन करेगा ।’ सोचता लखी रात का इंतजार करने लगा । लेकिन रात तो जाने कहाँ अटक गयी थी । लग रहा था जैसे उस दिन सूरज पूरब और पश्चिम के बीच में अड़ ही गया हो ।
लखी कभी मोबाइल में समय देखता ,तो कभी आसमान में । लंबे इंतजार के बाद रात के आने की आहट आयी । लेकिन लखी अभी भी प्रतीक्षारत था ।उसे प्रतीक्षा थी कि कब मारग्रेट के रूम की लाईट ऑफ़ करे और वह जेनी को कॉल करे । बहुत देर बाद लाईट ऑफ हुई और लखी अपने बाथरूम जा घुसा । झटपट जेनी का नंबर मिलाया । उसका फोन कवरेज एरिया से बाहर आया । कई बार कोशिश करने के बाद भी बात नहीं हो सकी । ‘ये जेनी बी ! उहाँ जाके उहेंच का हो गया । उसको याद बी नइ के मै … । ’ सोचकर खीझ सी उठी । ‘ फिर ‘अइसा बी तो हो सकता के तेरा बस्तर में नेटवर्क का टोटा हो । हो येईच होयेगा ।‘ सोचा और जेनी को मैसेज किया । फिर नजरें बार – बार मैसेज पर ब्लू टिक तलाशती रहीं लेकिन निराशा ही हाथ रही ।
वाइन, भाँग और प्रेम की मदहोशी में डूबी जेनी को न अपना होश था और न मोबाइल का । चढ़ती दोपहर उसका होश लौटा । वाट्सएप पर लखी सर का नाम देख, गुरु दक्षिणा वाली बात दिमाग में लउंक उठी । पछतावा इतना हुआ कि उसने मैसेज का कोई जवाब ही नहीं दिया और अगले दिन अलसुबह हांदापाड़ा ( बस्तर ) की ओर निकल पड़ी । मगर हांदापाड़ा बहुत करीब तो था नहीं । हजारों किलोमीटर दूर था | सो रायपुर तक ट्रेन से । फिर वहाँ से बाई रोड सफर कर आधरतिया में नारायणपुर पहुँची । हांदापाड़ा पहुँचना तो दिन में भी मुमकिन न था । फिर रात में तो नामुमकिन ही था । सो रात वहीं गुजारी । सुबह हांदापाड़ा के लिए सवारी तलाशी लेकिन वहाँ तक सवारी कोई जाती ही न थी । सो कोई टैक्सी जाने को तैयार न थी । जेनी चकित ! देश में विकास की गंगा बहा देने का दावा करने वाले लोगों के लिए, हांदापाड़ा तो देश के नक्शे में कहीं था ही नहीं । सो एक नकार सा था हांदापाड़ा के लिए । बहुत मुश्किल से एक ऑटोवाला तैयार हुआ ।
रास्ता ? किसी जमाने में वह सड़क बनी होगी । मगर अब उसका नामोनिशान नहीं था । सो गड्ढों को थहाता आटो आगे बढ़ने की कोशिश करने लगा । मगर उसकी इस कोशिश में बाधा डाल रही थीं झाड़ियाँ ,जो अपनी हदें फाँद बीच सड़क तक बढ़ आयी थीं ।आटो उससे बचता बचाता आगे बढ़ ही रहा था कि कुछ लताएँ चक्के से आ लिपटीं । आटो की रफ्तार थम गयी । घना जंगल । अनजान डगर और दूर – दूर तक कोई नहीं । ऐसे मे दूर से आती सियार की आवाज उसे और भयकारी बना रही थी । जेनी ने कभी जंगल न देखे हों ऐसा नहीं था लेकिन इतना घना जंगल ? जहाँ दिन में भी रात का साया हो ,उसने कभी नहीं देखा था । ऊपर से सवारी भी आटो की । वह दोनों ओर से खुला था । सो किसी जानवर के आक्रमण से बच जाना तो नामुमकिन ही था ।
बस्तर के जंगल का भी अपना अलग ही मिज़ाज है । कभी वह ऐसा मृदुल राग छेड़ता है कि मन के कोमल तार झनक उठें ,तो कभी इतनी ज़ोर से सनसनाता है कि दिल ही दहल जाय । इस समय कुछ ऐसी सनसनाती सी हवा चल रही थी कि लग रहा था जैसे किसी भुतही फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक हो । आटो चालक तो अभ्यस्त था । सो वह चक्के में अरझी लताएँ निकालने में संलग्न था लेकिन जेनी ? सनसनाती हवा में उसे तरह – तरह आवाजें सुनाई दे रही थीं । उसे कभी किसी स्त्री का करुण विलाप सुनाई देता ,तो कभी अट्टहास । सो ढलान की ओर चलता दिन ,जेनी के मन में भय की लहरें उठाने लगा ।
“ओड़ कीटना डेर लगेगा ?”
“मैडम ! ये बेल तो चक्का से नागिन माफिक लपट गया । फेर भी मैं कोसिस कर रहा । डेराने का कोनो बात नइ है । मैं है न ।”
आटो चालक ने उसे आस्वस्त किया लेकिन जेनी का मन ? वह तो भय के चंगुल में अरझा हुआ था । वैसे कोई ईश्वर को याद करे न करे लेकिन संकट में तो उसे ही याद करता है । सो जब भय ने अपनी जकड़ और बढ़ाई,तो उसका हाथ अपनी चेन पर जा पहुँचा । क्रास हाथ में आते ही मन को एक सहारा सा मिला लेकिन चौकन्नी नजरें हर आहट को टोहती रहीं । बहुत मशक्कत के बाद चक्के झड़ियों से मुक्त हुए । हेडलाईट की पीली रौशनी से अँधेरे को थहाता आटो मंजिल की ओर बढ़ चला लेकिन उस राह पर रफ्तार लेना आसान न था ओर हांदापाड़ा पहुँचने से बहुत पहले, वह राह भी एक पतली पगडंडी में विलीन हो गयी ।
“ मैडम ! गाँव के भीतर आटो जाएगा नइ । पइदल जाना होयेगा । ”
जंगल की बीहड़ राह । उस पर आटो की सवारी । देह की चूलें हिल गयी थीं । फिर भी मंजिल तक पहुँचना तो था ही । सो चल पड़ी । अंधेरी रात । अधरतिया का समय ओर खड़ी चढ़ाई । मोबाइल की क्षीण सी रौशनी में देर तक चलने के बाद ,जब गाँव ने झलकी मारी तो आटो चालक ने पता पूछा । उसने लखी के पिता का नाम बताया । गाँव में उसके घर तक पहुँचने के लिए वह नाम ही काफी था लेकिन इस समय तो गाँव सोया हुआ था । ऐसे में पता पूछते भी तो किससे ।
“मैडम ! कोनो और निसानी ? मेरा मतलब कोनो रुख या के और कुछ ?”
‘लखी सर ने ऐसा कुछ टो बटाया नइ । वो टो बोला उसका फादर को सब जानटा । ‘ सोचती जेनी परेशान हो उठी कि अब क्या होगा ? ‘मैं टो लखी सर को सरप्राइज डेना मागटा । मगड़ अब ? ’ जेनी लखी से हुई अपनी बातचीत खँगालने लगी । देर तक सोचने के बाद एक सिरा पकड़ आया र –
“ वो हाऊस का पास बोड़गड का ट्री होटा ।”
“बोड़गड ? माने बोड़ रुख? ”
वह समझ तो नहीं पायी कि बोड़ रुख माने बरगद है । फिर भी उसने हामी भर दी । गाँव बहुत बड़ा नहीं था लेकिन घर दूर – दूर छितरे हुए थे । गाँव में तमाम पेड़ थे । हर घर पेड़ों से घिरा हुआ था लेकिन बरगद का पेड़ ? नहीं दिखा । अब वे गाँव के आखिरी छोर पर थे । वहाँ से आगे और घना जंगल था ।
“मैडम ! अब इदर तो कोनो घर है नइ। वापिस चलें ?”
“ ओखे ।“
जेनी ने बुझे मन से कहा ओर दोनों लौट चले । ‘ ये टो सिटी चला जायेगा । औड़ मे ? निराश जेनी तय नहीं पा रही थी कि अब क्या करे । ऐसी अंधेरी और सन्नाटे भरी रात में यहाँ रुकने कि हिम्मत नहीं थी और यूं लौट जाने को मन तैयार न था । तभी एक झोपड़ी के पिछोत में एक अदमी दिखा । जेनी को जैसे परुआ धन मिल गया हो ।
“ हे मेन !”
उसे आवाज दी ओर तेजी से उस ओर लपकी । वह आदमी कुछ ठिठका । फिर झोपड़ी की ओर बढ़ चला ।
“जय जोहार तम्मू ।“ आटो चालक ने अभिवादन किया ।
“जय जोहार तम्मू ।“
“दोखमा साय का घर किदर है ? “
“ये ही घर है । फेर क्या काम है ?”
“ये मैडम दूर देस आया । तुम्हारा घर । “
“ हमारा घर ? इसको बोलो हमारा घर में इसका कोई जरूरत नहीं । “
वह भीतर जाने लगा । जेनी ने उसकी राह छेंक ली – “अम लखी सर का मैसेज लाया । “
“हम लोग को उसका कोई मैसेज वैसेज नहीं चाहिए । “
“ का हुआ रे भीखमा ? एतना रात में कोन आ गिया ?” बातचीत सुन दोखमा बाहर आया ।
“बाबो ! ये बोलती तम्मू (भाई ) भेजा इसको ।“
‘लखी पठोया !’ सोचकर मन की सूखी घास हरियाने लगी । मगर उसी क्षण आँखों में उभर आयी उसकी वह छवि जिसने स्नेह के सारे तन्तु नोच लिए थे और –
“बोल दे इसको लहुट जाय इहाँ से । अम को किसी का संदेसा नइ माँगता । चल बेटा । “
उसने भीखमा का हाथ पकड़ा और भीतर चला गया । “बड़ा आया सँदेसा पठोने वाला ।”
“कोन का सँदेसा आया रे ?”
लखमा की यायो ने पूछा लेकिन उसे जवाब न देकर वह बड़बड़ाया – “ जाने का बखत त अमारा बारे म सोचा नइ । अब एतना बरस बाद मया जागा उसका । ”
“किसका मया जागा ? तू कोन का बात करता ?”
“लखमा का । ओर कोन का ?”
“का मेरा लखमा सँदेसा भेजा ….?”कहती दरवाजे की ओर दौड़ी।
“नई । बाहिर नई जाने का । मैं बोल दिया अमको उसका संदेसा नइ माँगता ।” दोखमा ने उसका हाथ पकड़ अपनी ओर खींचा ।
“अइसे कइसे ? आमारा पिला होता वो ।”
अपना हाथ छुड़ाया ओर बाहर लपकी । जेनी आटो में बैठने वाली थी । पीछे से उसका स्कर्ट खींचा।
“तू मेरा लखमा का संदसा लाया ? का बोला मेरा लखमा ?”
जेनी ने देखा एक जीर्ण काय काया सामने थी ओर उसकी आँखों में जुगनू झिलमिला रहे थे । जेनी ने कुछ देर पहले दोखमा की आँखों में भी एक लँउक देखी थी । मगर वह क्षण भर में बुझ गयी थी । जेनी दोनों लँउक का अंतर समझ न सकी । नहीं समझ सकी कि वह लँउक पिता के स्नेह की लँउक थी , जिसे बेटे के उस फैसले की शीत ने क्षण मात्र मे बुझा दिया था लेकिन इन आँखों की लँउक गोरसी मेँ दबी ममता की लँउक थी । सो संदेश की हवा पाकर ओर लहक उठी । बेटे का संदेश लेकर आने वाली, जेनी इस समय उसके लिए बेटे से कतई कम न थी । सो उसका हाथ थाम उसे सीने लगा लिया । देर तक लिपटाए रही । फिर –
“ चल भीतर चल ।”
झोपड़ी मेँ प्रवेश करते ही कुछ मूर्तियाँ नजर आयीं । दीपक की क्षीण रोशनी मेँ भी वो दमक रही थीं ।
“ये मेरा लखमा बनाया ।”
“वाव ! अबी टक , इटना सुंडर डीखटा । लागटा अबी बनाया । ”
“ यायो इसकू रोज सफाई करती । रंग उतरता तो रंग करती ।”पीछे खड़ी युवती ने कहा ।
जेनी ने देखा एक स्त्री यायो के पीछे आ खड़ी हुई थी । उसे देख जेनी को लगा जैसे उसने अपनी जवानी को जबरिया पीछे धकेल प्रौढ़ता ओढ़ ली हो ।
“ये मेरा बोउ। लखमा बोउ ।“
‘लखी सर का बोव ! मानि मादरी माँ ! लखी सर टो बोला उसका इडर का लेडी …. । बट ये टो उसका फेमली जइसा । ’ सोचती जेनी ने उसकी आँखों मेँ देखा । वहाँ एक कुम्हलायी सी प्रतीक्षा ठहरी हुई थी । जेनी उस घर की मेहमान हुई । मांदरी के मन की मिट्टी तो अभी भी नम ही थी । सो वह अक्सर लखमा की बातें करती । उसके बारे में जेनी से पूछती । गाँव में एक पहाड़ी थी जहाँ नेटवर्क मिलता था । वह उसे उस पहाड़ी पर ले जाती । जेनी लखमा से बात करती और वह चुपचाप उसकी आवाज सुनती । जेनी को आश्चर्य होता । अपनी उपेक्षा के बाद भी कोई किसी को इस कदर चाहे कि उसकी गैर मौजूदगी में उसकी पत्नी बन, उसकी सारी ज़िम्मेदारी उठा ले ! कैसे ? सो उसने एक दिन पूछा –
“ लखी सर बोलटा हमारा लोग मे ओरट को बी बराबर का राइट होता । वो बी दूसरा शाडी बना सकटा । पड़ टूम ? लखी सर टुमारा संग टो शाडी बी नही बनाया ।टब बी टुम ! उसका वास्टा आपना लाइफ … ।“
मांदरी देर तक उसे देखती रही । वास्तव में वह उसे नहीं अपने भीतर देख रही थी । अपना मन थहा रही थी । सो देर तक चुप्पी ही रही । फिर –
“ कबी – कबी आपना नइ इसका चलता ।” कहकर उसने अपने दिल पर हाथ रखा ।
जेनी कुछ देर आवाक सी उसे देखती रही । प्रेम का यह रूप उसके लिए अविश्वसनीय था लेकिन यहाँ अविश्वास के लिए कोई जगह ही कहाँ थी ।सो – “ओ मादरी मा । आई लव यू ।” कहती उससे लिपट गयी ।
घर के सब लोगों ने लखमा के संदेश को स्वीकार लिया था लेकिन दोखमा? उसे न तो लखमा का संदेश स्वीकार था ओर न ही जेनी । सो उससे कन्नी काटता रहता । जेनी ने बहुत कोशिश की लेकिन वह उससे दूरी ही बनाये रखता । लेकिन जेनी ? उसे तो उनसे चाहिए थी चुटकी भर वो माटी,जो उसके लखी सर की गुरु दक्षिणा थी । सो वह मौका तलाशती रहती । घर और बाहर उनका संग धरने की कोशिश करती । सो जब दोखमा घर मेँ होता ,वह लखी की चर्चा चला देती । जेनी ने गौर किया पहले लखी की चर्चा छिड़ते ही वह वहाँ से खिसक लेता । फिर उसका मन बदलने लगा । अब वह कनखियों से जेनी को देखता । न सुनने के बहाने से उसकी बातें सुनता । सो जेनी को भी सही मौके की तलाश थी और एक दिन वह मौका मिल गया। जेनी ने देखा दोखमा एक मूर्ति को टकमार कर निहारे जा रहा था।
“केटना अच्चा मूरटी है ?”
दोखमा ने जवाब नहीं दिया । जेनी का हौसला बढ़ा । वह उसके करीब जा बैठी ।
“लखी सर ने बनाया?”
“हो।”
कुछ देर खामोशी रही फिर -” ये जेतना मूरत है न ? सब मेरा लखमा बनाया । तेरे कू मालूम वो भोत बड़ा कलाकार होता था । फेर अब्ब तो वो…. । ” कहते आँखें पनिया आयीं ।
“ टुम लखी सर को बहुट लव , पड़ेम कड़टा । वो बी टुम को बहुत पड़ेम कड़टा। ”
“सच्ची ! मेरे कू याद करता वो ।”
“ एस । टुमाड़ा लिए ड़ोटा । मापी मागा टूमसे । बहुत ड़ुख कड़टा । कोई मूड़त बी नही बना सकटा ।”
“पगला है वो ।” कहते हुए आँखें उफनतीं भावनाओं को सम्हाल न सकीं और आँसुओं की धार छूट चली। देर तक रोता रहा फिर –
“ वो मेरा पीला है । मै तो उसकू बहुत पहली माप कर दिया । उसकू बोलना अपना काम मे मन लगाये।”
“लखी सर बोला मेरा बाबो मेरा गुडू । उसका हात से चोटकी भर माती माग के लाना । वोही मेरा माफी होयेगा । ”
“वो मेरे से चोटकी भर माटी मांगता ? तू जाके बोलना मैं उसकू अपना बस्तर का पूरा माटी देता । उसका कलाकार आगू बाढ़े । गाँव का नाम करे । मेरे कू अउर का चाही । ” कहते आँखें फिर पनिया आयीं ।
“नो ड़ोटे नही ।”जेनी ने दोखमा को अपने से लिपटा लिया ।
उस रात जेनी ने कॉल नहीं वीडियो कॉल किया – “लखी सर ! बाबो का माफी मिल गया ओर माती ? टुम चोटकी बर माती मांगा ,वो पूरा बस्टर टुमारा नाम कड़ डिया । वो टुमारा लिये विश कड़टा ड़ उनका विश टूम हो । टूम वापिस आ जाओ ।ओर मांडरी मा ? बूँड बर पानी नही अपना पूड़ा पड़ेम डे डिया टुमको । टुमारा वाइफ बन के टुमारा गर में रहटा । डेखो ।”
जेनी ने कैमरा घुमाया । अब स्क्रीन पर चेहरे नहीं आँसू की धाराएँ थीं । न जाने कब तक धाराएँ बहती रहीं । वीडियो डिस्कनेक्ट हो गया । मांदरी फिर भी स्क्रीन को निहारती रही । और लखमा ? वह भी देर तक उस स्क्रीन को ही निहार रहा था ,जहाँ कुछ देर पहले उसकी .. । देर तक निहारता रहा उसे फिर उसके दृढ़ कदम मारग्रेट के रूम की ओर बढ़ चले ।
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