लघुकथा
■आवारा कुत्ते
-दिलशाद सैफी
[ रायपुर-छत्तीसगढ़ ]
मम्मा प्लीज़… थोड़ा जल्दी लंच बाक्स तैयार कर दो न कालेज को लेट हो जाऊँगी …!
ओ हो.. ये लड़की मानो ट्रेन में हुई हो हमेशा इसे जल्दी रहती है..।
ले बाबा तेरा लंच बाक्स …ओके ..बाय मम्मा लव यू..
अच्छा सून तो …रेखा की माँ निशा पीछे से दौड़कर रेखा – अब क्या हो गया यार मम्मा.. आप भी न …रोज लेट हो जाती हूँ आपके कारण ..बोलिए..!
बेटा मैं कह रही हूँ …थोड़ा सम्भल के जाना और आना ।
पहुँच कर काॅल कर देना और वापस घर आते समय भी आटो में बैठ कर बता देना…आजकल गली में “आवारा कुत्ते “बहुत हो गये न…. !
ओ हो.. माँ आप रोज कालेज जाते समय यही कहती हो.. पक गयी हूँ आपकी बातें सून सून के।
रोज वही “आवारा कुते” मुझे आजतक तो कभी किसी कुत्ते ने नहीं काटा है… फिर आप क्यों मुझे डराती रहती हो ।
नहीं मेरी बच्ची …मैं तो बस तुझे आने वाले मुसीबत से बचाना चाहती हूँ ।
रेखा – हाँ बड़ा.. सारे खतरों और मुसीबत का पता तो आपको घर में बैठे-बैठे चल जाता है।
यार मम्मा आज दुनिया कहाँ से कहाँ निकल गयी है और आप वही के वही रह गयी ।
माँ – मैं तो बस तुझे आगाह कर रही हूंँ ।
रेखा – अच्छा बाबा.. हो गया भाषण खत्म अब मैं जाऊँ।
और रेखा चली गई रास्ते में कुछ लड़के खड़े मिले जो उसकी ओर इशारा कर मुस्कुरा रहे थे।
और इन्ही लड़को को उसने अपने कालेज कैंपस के बाहर भी देखा था।
कई दिनों से ये चल रहा था मगर उसने इस ओर ध्यान नहीं दिया ।
मगर न जाने क्यों आज उसे अपनी माँ की एक एक बात याद आ रही थी …हाँ दो दिन पहले यही लड़के उस के घर के इर्द -गिर्द भी घूम रहे थे ।
शायद मम्मी इन्ही “आवारा कुत्तो “की बात कह रही थी।
वाह एक अंजाने खौफ से काँप गयी….और उसकी आँखें भीग गई।
वह अपनी माँ की पारखी नज़रो को समझ चुकी थी और साथ ही उसका इशारा कि वो किस “आवारा कुत्तो ” की बात कह रही थी ।
उसने तुरंत माँ को फोन लगाया और बताया कि वह कुशल से कालेज पहुँच गयी है।
निशा ने लम्बी सास ली और सोफें में इतमीनान से बैठ गयी।
शाम को रेखा ने कालेज से निकल के आटो में बैठते ही माँ को फोन लगा दिया और घर पहुँच माँ से लिपट गयी ।
निशा अब पूरी तरह निश्चिंत हो गयी थी कि इन “आवारा कुत्तो” को रेखा पहचान गयी है ।
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